Monday, 28 February 2011

अपने गांव की होली की खूबसूरत यादें

मीलों दूर अपने गांव-घरों की होली की खूबसूरतयादों को खुद की तरह दिल्ली में बसा रहे हैं। पहली बार इस बात का एहसास हो रहा है की होली की हुडदंग गांव के मित्रों की टोली के बिना कितनी अधूरी है। आज ज़ब सुबह-सुबह मेरे गांव के मित्र मंडली का फोन आया तो उन्हें इस बात से निराशा हुयी कि इस बार मई होली में घर नहीं आ रहा हूँ। बचपन की खूबसूरत यादों में सजे हुए वो पल याद आने लगे। हां याद है कि वो गांव के बाहर पोखरे के पास जहां से हमने न सिर्फ़ होली को जिया था बल्कि होलिकादहन की उन शामों का भी भरपूर मज़ा लिया था। उन दिनों का मौसम और इंसानों का मिजाज़ आजकल के मौसम की तरह बेइमान नहीं होता था।

स्कूल से आते समय कंधे पर बस्ता और हाथों में गन्ना चूसते हुए हमारी स्कूल से घर की यात्रा मस्ती और शरारत के बीच बीत जाती.. फ़गुनाहट की आहट तब सुनाई देने लगती। होलिका दहन की तैयारी तो कम से कम दस दिनों पहले ही शुरू हो जाती थी। तैयारी क्या पहले से तय कर लिया जाता था कि इस बार कौन सा रेंड का पेड़ होलिका के लिए गाड़ा जायेगा और फ़िर पूरी गैंग सारे नियमित सांध्यकालीन खुराफ़ाती कार्यक्रम ..मसलन किसके खेत से गन्ने कि पत्तियों का बोझा लाना है और किसके खलियान से शरपत उठाना... झाडों को चट कर जाना चाहे फ़िर उसके लिए कितनी ही खरोंचें हाथ में लग जाए इन सबके बीच जिस बात का सबसे अधिक ख्याल रखा जाता था वह यह कि अपने एरिये में सबसे ऊँची लपट वाली होलिका हमारी ही जलनी चाहिए।

पहली मीटिंग में दो बातें तय हो जाती थीं एक ये कि इस बार होलिका दहन के लिए किस-किस के घर से पुआल, शरपत वगैरह निर्धारित समय पर उठाना है। लल्लन के घर से होलिका में जलने लाएक सामान  कब गायब की जा सकती है और धोबियाना की होलिका कब लुतनी है... लेकिन इसके बावजूद हम लकडी इकट्ठे करने में जी तोड मेहनत करते थे। एक बार का वाकया याद है जब हम लोगों ने मिलकर लल्लन के घर के बहार रखा करीब पंद्रह बोझ शरपत होलिका के दिन ही उठा लाये थे। और जबतक वो यह पता करने आते लड़कों ने बिना मुहूर्त के ही होलिका दहन कर डाला।

लेकिन उस बार के होलिका की लपटें क्या ऊपर तक उठीं थीं ..। मुझे याद है कि उन दिनों ये आज का आलम नहीं होता और कभी कभी तो आग तापने तक में मजा आता था मगर फ़िर भी गर्मी तो अपना पहला कदम बढा चुकी होती ही थी। उनदिनों मुझे जो अजीब लगा था वो यह की जलती होलिका के बीच से रेंड के बचे हुए हिस्से को निकलना और उसे गांव की शरहद से दूर दूसरे गांव में पहुचना इसके पीछे क्या कारण था मुझे आज भी समझ नहीं आया। लेकिन मैंने भी अतिउत्साहित होकर एक दो बार यह काम कर प्रसशा हासिल की थी।

हा इस बीच जो सबसे रोचक घटना होली में घटित होती वो है गांव के कुछ ऐसे बुड्डे (जिनसे गाली खाने में सबको मज़ा आता हो) को टार्गेट कर रात के अंधरे में गोबर से नहलाना। काम काफी दिलेरी का होता था लेकिन हुडदंग होती जरुर थी। हाँ यह बात अलग थी कि इस काम में गांव के कुछ बड़े लोग  ही उकसाते थे। जब पुरखों से लेकर वर्तमान पीढ़ी के लोगों को चिल्ला-चिल्लाकर याद करता तो समझ लिया जाता था कि मिशन कामयाब हो गया। और एकाध दो घंटे एक्सक्लूसिव गलियों का लाइव प्रसारण देखने के लिए पूरा गांव जुट जाता था।

अगले दिन सुबह होते ही मंडली के जुटने में ज्यादा देर नहीं लगती थी। सबसे अधिक आनंद इस बात में आता था की सबसे पहले किसको किसने रंगों से लथेरा है। सुबह से लेकर दोपहर तक तो रंग कम कीचड़ और गोबर की होली अधिक होती थी। दोपहर में नहाई धुलाई उसके बाद जो गुझिया और खीर पूरी पर हाथ साफ़ करिए।

थोडी देर आराम फ़िर उसके बाद मंडली चलती थी साफ़ झक्क कपडों में होली खेलने के लिए यानि अबीर लगाने। बारी बारी से सबके घर पर जाना। बधाई शुभकामना के बाद ..ठंडई सेवन भी ..और वो शाम कब यादगार दिन की समाप्ति को मदमस्त कर देती थी ये पता नहीं चलता था। ये खुमारी सालों साल याद रहती थी ……

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