Friday, 18 February 2011

कट्टरपंथियों के गले की फांस


अवनीश 
देश में शिया मुस्लिम समुदाय की सबसे बड़ी संस्था दारुल उलूम के नए कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तनवी को मोदी की सच्चाई बयां करना भारी पड़ रहा है। उनका बयान कट्टरपंथियों के गले की फांस बनता नजर आ रहा है। इस बात से मुसलमानों के धर्मगुरु व दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी खासे नाराज हैं। उन्होंने वस्तनवी से माफी मांगने को कहा है।
मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी अपना पदभार संभालने के साथ ही चर्चा में आ गए हैं। चर्चा में आने की अनेक वजह हैं। वस्तानवी दारुल उलूम के पहले मुखिया हैं, जो एमबीए किए हुए हैं। उन्होंने अपने स्थापित किए मदरसों में आधुनिक विज्ञान, इंजीनियरी और चिकित्सा जैसे विषय शामिल किए हैं। देवबंद के इतिहास में वे पहले गुजराती कुलपति हैं और गुजरात में मुस्लिमों की स्थिति पर उनकी टिप्पणी भी विवाद का विषय बनी है।
दारुल उलूम देवबंद के नए कुलपति (वीसी) मौलाना गुलाम मुहम्मद वस्तानवी का मानना है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाला गुजरात देश का विकास मॉडल बन गया है। सूबे में हर समुदाय के लोगों को बराबर मौका मिल रहा है। वस्तानवी ने यहाँ तक कहा कि अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर गुजरात ने काफी बदनामी झेली, लेकिन यहां हालात काफी जुदा हैं और मुसलमान समृद्ध व खुशहाल हैं।
वस्तनवी ने जिस बेबाकी से गुजरात और नरेन्द्र मोदी के बारे में अपनी राय ज़ाहिर की है उससे लगता है कि गुजरात को लेकर जिस तरह की राजनीति अभी तक होती रही है उस पर अब अंकुश लग ही जाना चाहिए। भारतीय मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति सुधरे, ऐसा कौन नहीं चाहता… लेकिन इसके लिए शरीयत की आड़ लेना, सिर्फ़ मन को बहलाने एवं धार्मिक भावनाओं से खेलना भर है। हर बात में “धर्म” को घुसेड़ने से अन्य धर्मों के लोगों के मन में इस्लाम के प्रति शंका आना स्वाभाविक है। अगर सच्चाई है तो उसे स्वीकार करना ही पड़ेगा। यही बात कत्त्र्पंथियों के दिमाग में गुश्ने का नाम ही नहीं ले रही है।
यहाँ एक बात तो स्पष्ट है मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तनवी ने खुले दिल और दिमाग़ से गुजरात में रहने वाले मुस्लिम समुदाय के अमन-चैन की बात कही है। गुजरात के मुस्लिम समुदाय नरेंद्र मोदी के साथ हैं लेकिन शासन और सत्ता के गुलाम चन्द लोग वोट की राजनीति में निरत हैं। अतीत के कफ़न में लिपटे लोगों को भविष्य से कोई लेना देना नहीं है। अस्तु, देश की समृद्धि चाहने वाले लोग नरेंद्र मोदी के साथ हैं, उन्हें शाही इमाम की मज़हबी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है।
मुझे नहीं लगता की वास्तनवी साहब ने कुछ ग़लत कहा है। अगर गुजरात के विकास मे मुसलमान भागीदार बन रहे है और उसका लाभ उन्हे मिल रहा है तो बुरा क्या है? किसी राज्य की तरक्की मे उस राज्य मे रह रहे सभी लोगों का योगदान होता है। अगर एसा नहीं होता तो उद्योगपती वहाँ उद्योग लगाने से पहले धर्म निरपेक्षता के चक्कर मे फँसता और उद्योग न लगता। किंतु ये क़ानून व्यस्था की स्थिति पर निर्भर करता है की उद्योगपती उद्योग लगाए या न लगाए जैसे की हमारे उत्तर प्रदेश का हाल है।
किंतु अफसोस इस बात का है कि गणतंत्र को चलाने और राजधर्म को निभाने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वे वोट बैंक से आगे की सोच नहीं पाते। वे देशद्रोह को भी जायज मानते हैं और उनके लिए अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी कुछ भी कहने और बकने को हर देशद्रोही आजाद है। हैदराबाद के लोकसभा सदस्य असदुद्दीन ओवैसी का इस सन्दर्भ में आया बयान कट्टरता की सच्चाई को उजागर करता है। उन्होंने सपष्ट शब्दों में कहा कि वस्तानवी शायद भूल गए हैं कि वो गुजरात के किसी मदरसे के प्रमुख नहीं बल्कि विश्व की सबसे बड़ी इस्लामी विश्वविद्यालय के प्रमुख हैं।” राष्ट्रीय स्तर पर भी मुस्लिम समुदाय की राजनीति में काफी दखल रखने वाले ओवैसी ने यहाँ तक कह दिया कि वस्तानवी का बयान उस अभियान का हिस्सा हो सकता है जो 2014 के चुनाव में मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर पेश करने के लिए चलाया जा रहा है।
आप को याद होगा इस्लामी कायदे कानूनों के बारे में लोगों संदेहों का निराकरण करने वाली संस्था दारुल उलूम देवबंद इस साल जीवन से जुड़े अलग-अलग फतवों को लेकर खासी चर्चा में रही। देवबंद ने जहां रक्तदान को हराम करार दे दिया, वहीं महिलाओं और पुरुषों के एक साथ काम करने को भी अवैध बताया। देवबंद ने अपने एक फतवे में कहा कि इस्लाम के मुताबिक सिर्फ पति को ही तलाक देने का अधिकार है और पत्नी अगर तलाक दे भी दे तो भी वह वैध नहीं है। इस्लाम में फतवे की बहुत मान्यता है। फतवा मुफ्ती से तब मांगा जाता है, जब कोई ऐसा मसला आ जाए जिसका हल कुरआन और हदीस की रोशनी में किया जाना हो। लेकिन पिछले कुछ सालों में ऐसा हुआ है कि फतवों की बाढ़ आ गयी है।
वही दूसरी ओर भारत का मुसलमान बदल रहा है। वह ज़्यादा विकास चाहता है, रोज़गार चाहता है। अब मुसलमान सानिया मिर्ज़ा की स्कर्ट को लेकर परेशान नहीं होता। बच्चों के लिए शिक्षा चाहता है, ताकि प्रतियोगिता के इस दौर में मुक़ाबला कर सके। उसकी डिमांड सेकुलर हो गई है, लेकिन अ़फसोस की बात यह है कि खुद को मुसलमानों का नेता और रहनुमा समझने वालों को ही इस बात की भनक नहीं है। ऐसे समय में वस्तानवी ही देवबंद के परंपरावाद को आधुनिकता से जोड़ कर उसकी छवि को और बेहतर बना सकते हैं। आधुनिक शिक्षा पर उनका जोर मुस्लिम नौजवानों को नए जमाने में दूसरे समुदायों के साथ आगे बढ़ने में मदद करेगा। उदार आधुनिकता का परंपरा से कोई अनिवार्य विरोध नहीं है, यह साबित करने में वे कामयाब होंगे, यह उम्मीद करनी चाहिए न कि आलोचना।

20 जनवरी 2011

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