Friday 7 October 2011

क्रांति पुरुष के निर्णय किसी तर्कशास्त्र या न्यायशास्त्र के आधार पर नहीं होते


एक अभूतपूर्व मंथन से हम सब और हमारा देश पिछले कई सालों से गुजर रहा है। इस वक्त, जबकि हम इस मंथन के एक पड़ाव पर आकर खड़े हैं, अवश्कता है इसके सिंहावलोकन की, कुछ निरिक्षण-परिक्षण, लेखा-जोखा और मुल्यांकन की। जनजीवन में समय-समय पर आने वाले ऐसे ज्वार और मंथन का सम्यक आंकलन कर सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा दिया गया। 1974 में गुजरात के छात्रों ने निर्णायक लड़ाई लड़कर यह साबित कर दिखाया कि भारत की छात्र-शक्ति, ‘समलक्ष्यऔर समबोधके रास्ते पर आगे बढ़कर उन मूल्यों को स्थापित करने के लिये प्रभावी भूमिका अदा कर सकती है; जिनके लिये आजादी की लड़ाई लड़ी गयी थी।
क्रांति पुरुष के निर्णय किसी तर्कशास्त्र या न्यायशास्त्र के आधार पर नहीं होते। वे प्रायः सहजस्फूर्त होते हैं। ऐसे ही महापुरुष थे जयप्रकाश नारायण। पांच जून, 1975 की विशाल सभा में जयप्रकाश नारायण ने पहली बार सम्पूर्ण क्रान्तिके दो शब्दों का उच्चारण किया। क्रान्ति शब्द नया नहीं था, लेकिन सम्पूर्ण क्रान्तिनया था। सम्पूर्ण क्रान्ति जयप्रकाश नारायण का विचार व नारा था जिसका आह्वान उन्होने भ्रष्ट सत्ता को उखाड़ फेकने के लिये किया था। लोकनायक नें कहा कि सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल है - राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रान्ति होती है। सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जय प्रकाश नारायण जिनकी हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। बिहार से उठी सम्पूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी थी। जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे।
आन्दोलन के दौरान सम्पूर्ण बिहार में कहीं भी जाने पर यह स्पष्ट दिख पड़ता था कि यह एक जन आन्दोलन है। छात्र, अध्यापक, वकील, कर्मचारी, दुकानदार- व्यापारी, बच्चे-किशोर-युवा-अधेड़-वृध्द, पुरुष-महिला, भूखे-नंगे मजदूर- किसान से लेकर धनवान, लेखक-कवि-साहित्यकार- पत्रकार-विद्वान और सभी वर्ग के लोगों का जे. पी. के आन्दोलन के प्रति सहानुभूति और सहयोग भाव था। पटना के गांधी मैदान पर लगभग पांच लाख लोगों की अति उत्साही भीड़ भरी जनसभा में देश की गिरती हालत, प्रशासनिक भ्रष्टचार, महंगाई, बेरोजगारी, अनुपयोगी शिक्षा पध्दति और प्रधान मंत्री द्वारा अपने ऊपर लगाये गए आरोपों का सविस्तार उत्तर देते हुए जयप्रकाश नारायण ने बेहद भावातिरेक में जनसाधारण का पहली बार सम्पूर्ण क्रान्तिके लिये आह्वान किया।
राजनीतिक क्षेत्र में जे.पी. सत्ता के विकेन्द्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे। वे चाहते थे कि प्रत्याशियों का चयन तथा राजसत्ता पर नियंत्रण जनता के द्वारा होना चाहिए। वे लोक चेतना के द्वारा जनता को जगाकर उसे लोकतंत्र का प्रहरी बनाना चाहते थे ताकि नीचे के कर्मचारी से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक सबके काम काज पर निगरानी रखी जा सके। वे चाहते थे कि जन प्रतिनिधियों को समय से पूर्व वापस बुलाने का अधिकार उस क्षेत्र की जनता को मिले ताकि जन प्रतिनिधियों को अपने निर्वाचन क्षेत्र के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके।
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में मार्च, 1974 में प्रारम्भ हुए बिहार छात्र आन्दोलन का दौर 15 महीने रहा। 18 महीने की इमरजेंसी आई। भारत की लोकसभा के चुनाव घोषित हुए, जिसे आन्दोलन समर्थकों ने जे. पी. के नेतृत्व में लोकशाही बनाम तानाशाहीको मुद्दा बनाकर लड़ा। इमरजेंसी की आकस्मिक घोषणा के फलस्वरूप सम्पूर्ण क्रान्तिकी संघर्ष-यात्रा लोकतंत्र के रक्षा-अभियानमें बदल गयी और सरकार को हटाना ही सम्पूर्णता लक्ष्यबन गया। 1977 के चुनाव नतीजों ने सिध्द कर दिया कि जे. पी. के आन्दोलन के प्रति जनता की पूरी सहमति और स्वीकृति थी।
समता, स्वतंत्रता और भातृत्व की भावना के आधार पर लोक नायक जय प्रकाश नारायण नए समाज की रचना चाहते थे ताकि एक नए मनुष्य का निर्माण हो सके। वे क्रान्ति का सूत्रपात गांव से करना चाहते थे। उनका मानना था कि गांव की हर एक समस्या का चिन्तन ही सम्पूर्ण या समग्र क्रान्ति का पहलू है। इसलिए रचना, संघर्ष, शिक्षण और संगठन की चतुर्विधि प्रक्रिया से वो गांवों को बदलना चाहते थे। उनका कहना था कि जब गांव बदलेंगे तो शहर भी बदले बिना नहीं रहेंगे।
अवनीश सिंह

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