Tuesday 13 September 2011

संस्कृत मां, हिन्दी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी


अवनीश सिंह
हिन्दी-दिवस की आप सभी को बधाई। १४ सितम्बर १९४९ को संविधान में हिन्दी को राष्ट्र भाषा स्वीकार किया गया था। वह दिन निश्चित ही स्वतंत्र भारत के लिए गौरवपूर्ण दिन था। एक लम्बा अन्तराल बीत गया है किन्तु आज तक हम हिन्दी को वह स्थान नहीं दिला पाए जिसकी वह अधिकारिणी है। अनेकता मे एकता का मंत्र को प्रतिपादित करने और हमारे देश को एकजुट बनाए रखने मे राष्ट्रभाषा से बडा योगदान पहले किसी का था और आगे किसी का होगा अत: अपनी राष्ट्रभाषा पर हमे गर्व होना चाहिए। इसे अपनाने और हर जगह प्रयोग मे लाने से ही हम अपनी महान सांस्कृतिक विरासत को बचा सकते है।
संस्कृत मां, हिन्दी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है, ऐसा कथन डॉ. फादर कामिल बुल्के का है जो संस्कृत और हिन्दी की श्रेष्ठता को बताने के लिए सम्पूर्ण है। मगर आज हमारे देश मे देवभाषा और राष्ट्रभाषा की दिनो दिन दुर्गती होती जा रही है। या यूं कह ले की आज के समय मे मां और गृहिणी पर नौकरानी का प्रभाव बढता चला जा रहा है तो गलत नही होगा। लेकिन ऐसा क्यूं है ? आखिर वो कौन सी बात है जो हिन्दी को हर पल अंग्रेजी के आगे झुकने पर मजबूर कर देती है? भारत मे तो हिंदी जाननेवाला व्यक्ति देश के किसी कोने में जाकर अपना काम चला लेता है। फिर हिन्दी मे बोलना या लिखना आज कल के दौर मे कम क्यूं होता जा रहा है ?
वर्तमान में हम अपनी भाषा और अपनी संस्कृति दोनो से ही दूर होते जा रहे हैं। एक विदेषी भाषा सीखना बुरा नहीं किन्तु अपनी पहचान खो बैठना बुरा है। अपनी भाषा से दूर होने के कारण हम अपनी संस्कृति से भी दूर हो रहे हैं। बल्कि यों कहें कि अपनी पहचान भी खो रहे हैं। हमारी दशा उस मूर्ख जैसी है जिसके पास पूर्वजों की बहुमूल्य विरासत है किन्तु वह उसका उपयोग नहीं कर पाता और भिखारी बना रहता है।
आज आप कही भी जा कर देख ले, एक अंग्रेजी बोलने वाले को बडी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है पर अगर उसी बात को कोई हिन्दी मे कह्ता है तो उसे उतना मान नही मिल पाता है। आज के समय मे नयी पीढी तो ये कहने मे जरा भी गुरेज नही करती की मेरी हिन्दी अच्छी नही है अत: मै अंग्रेजी मे ही बात करने या कहने को प्राथमिकता दूंगा। महात्मा गाँधी ने कहा था की अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिये ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता समझता है। मगर आज जितना प्रयास हिन्दी को बचाने के लिए किया जा रहा है, उससे कही ज्यादा जोर अंग्रेजी को बढाने के लिए हो रहा है। तो क्या अब ये मान लिया जाए की बिना अंग्रेजी बोले हम पूर्ण भारतीये नही कहे जा सकते ?
हमारी हिन्दी भाषा संसार की सर्वोत्तम भाषा है। इसकी वैग्यानिकता इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। जैसे बोली जाती है वैसे ही लिखी जाती है। तर्क संगत है। सुमधुर और सरल है। भूमावृति के कारण नित्य नवीन शब्दों को जन्म देने वाली है। एक-एक शब्द के कितने ही पर्याय वाची हैं। हर शब्द का सटीक प्रयोग होता है। अलग-अलग संदर्भों में एक ही शब्द नहीं, अलग-अलग शब्द हैं। समन्वय की प्रवृति के कारण दूसरी भाषाओं के शब्दों को जल्दी ही अपने में समा लेती है। माँ के समान बड़े प्यार से सबको अपने आँचल में समा लेती है। यही कारण है कि दूसरी भाषाओं के शब्द यहाँ आकर इसी के हो जाते हैं। फिर भी हम इसका लाभ नहीं उठा पा रहे। यह हमारा दुर्भाग्य ही तो है।
विडम्बना तो यह है कि परतन्त्रता में तो हिन्दी का विकास होता रहा किन्तु जब से देश स्वतन्त्र हुआ, हिन्दी का विकास ही रुक गया उल्टे उसकी दुर्गति होनी शुरू हो गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शासन की नीति तुष्टिकरण होने के कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा के स्थान पर "राजभाषा" बना दिया गया। विदेश से प्रभावित शिक्षानीति ने हिन्दी को गौण बना कर अग्रेजी के महत्व को ही बढ़ाया। हिन्दी की शिक्षा धीरे-धीरे मात्र औपचारिकता बनते चली गई। दिनों-दिन अंग्रेजी माध्यम वाले कान्वेंट स्कूलों के प्रति मोह बढ़ते चला गया और आज हालत यह है कि अधिकांशतः लोग हिन्दी की शिक्षा से ही वंचित हैं।
भाषा के प्रचार के लिए प्रभावशाली माध्यम है मीडिया किन्तु टीबी के निजी चैनलों ने हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल करके हिन्दी को गर्त में और भी नीचे ढकेलना शुरू कर दिया और वहाँ प्रदर्शित होने वाले विज्ञापनों ने तो हिन्दी की चिन्दी करने में "सोने में सुहागे" का काम किया। इसी प्रकार से रोज पढ़े जाने वाले हिन्दी समाचार पत्रों, जिनका प्रभाव लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है, ने भी वर्तनी तथा व्याकरण की गलतियों पर ध्यान देना बंद कर दिया और पाठकों का हिन्दी ज्ञान अधिक से अधिक दूषित होते चला गया।
मै ये बात अंग्रेजी का विरोध करने के लिए नही कह रहा हूं, बल्कि मेरी ये बात तो हिन्दी के उपर अंग्रेजी को प्राथमिकता देने पर केन्द्रीत है। आज हिन्दी बोलने वाले को निकृष्ट और अंग्रेजी बोलने वाले को उत्कृष्ट समझे जाने पर है। आज हमारा देश बदल तो बहुत गया है मगर इस बदलाव ने हमारी मूल पहचान को भी बदल कर रख दिया है। जो देश मानव-भाषा की जननी कही जाती है, आज उसी देश की भाषा को लिखने और बोलने मे, उसी देश के लोग अगर परहेज करने लगे तो फिर इससे बडा सांस्कारिक पतन और क्या कहा जा सकता है! आज अगर आप प्रवाहिक अंग्रेजी या फिर कामचलाऊ अंग्रेजी भी बोल सकते है तो आप नि:संदेह किसी अच्छे जगह पर नौकरी पाने के ज्यादा हकदार बन जाते है, उन लोगो के बनिस्पत जो बहुत अच्छी हिन्दी लिख और बोल दोनो सकते है।
वाल्टर चेनिंग ने विदेशी भाषा का पुरजोर विरोध करते हुए कहा था की विदेशी भाषा का किसी स्वतंत्र राष्ट्र के राजकाज और शिक्षा की भाषा होना सांस्कृतिक दासता है। तो क्या भारत आज भी अंग्रेजों की सांस्कृतिक दासता का शिकार है ? आज तो भारत मे ज्यादातर राजकाज और शिक्षा की भाषा अंग्रेजी ही नजर आती है। तो इसका अर्थ तो यही हुआ की की आज भी हम सम्पूर्ण आजाद नही हुए है बडी शर्म आती है उन लोगों को देखकर जो अपनी हिन्दी को अपनाने मे शर्म महसूस करते है मै दावे के साथ ये कह सकता हूं की दुनिया की कोई भी ऐसी बात नही बनी जिसे हम हिन्दी मे कह नही सकते या फिर समझा नही सकते। फिर क्यूं हर बात के लिए अंग्रेजी का मुंह ताकते है हम हिन्दुस्तानी ?
आज हम हर स्तर पर आधुनिक तो होते जा रहे है लेकिन साथ साथ हम उन मूल्यों को भी खोते जा रहे है जो हमारे देश की एक विशिष्ट पहचान, दुनिया के सामने प्रस्तुत करती थी। आज के समय मे हिन्दी का अपमान करने पर तुले हम भारतीयों को एक बार तो ये जरूर सोचना चाहिए की क्या दुनिया का कोई भी ऐसा देश है जिसकी मूल भाषा अंग्रेजी हो और उस देश के लोग उसे ना बोलकर हिन्दी को अपनाने लगे हों भाषा त्यागने का उदाहरण भारत से ज्यादा शायद और कही देखने को ना मिले।
कही एक बहुत सटीक बात कही गई है की सरलता, बोधगम्यता और शैली की दृष्टि से विश्व की भाषाओं में हिन्दी महानतम स्थान रखती है। आज उस महान हिन्दी रूपी बिन्दी को सर से उतारने पर तुले हम भारतीयों को एक बार रूक कर ये देखना पडेगा कि हमारा ये कृत्य हमारी आने वाले पीढी को क्या देकर जाएगा कही ऐसा ना हो की आने वाली पीढी अपनी राष्ट्र भाषाई निर्धनता के लिए हमे कभी माफ ना करे। देशोन्नति के लिये हिंदी भाषा को पहले भी अपनाया गया था और भविष्य मे भी इसे बरकरार रखने की आवश्यक्ता है जो भाषा जन्म से ही अपने पैरों पर खडी मानी गई है जरुरत है उसे अपने साथ लेकर चलने की क्यूंकी इसी से हम अपने चिर काल से विकसित संस्कारों की छ्टा पूरी दुनिया मे बिखेर सकते है।
हिन्दी हमेशा उन्नत रहे फले फूले और हिन्दुस्तानियों के सर पर बिन्दी बन चमकती रहे की आशा के साथ मैथिलीशरण गुप्त की कुछ पंक्तियों से इस लेख का समापन करता हूं – “मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती भगवान भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती