Thursday, 24 February 2011

कुशल नेतृत्वकर्ता नेता जी सुभाष चन्द्र बोस


यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में भारत माता ने ऐसे अनेक नर-पुंगवों को जन्म दिया था, जिनकी तुलना विश्व के किसी अन्य देश से नहीं की जा सकती। किन्तु इसके बावजूद इसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संचालित राष्ट्रीय आन्दोलन की त्रासदीपूर्ण विडम्बना ही कहा जाएगा कि आवेदनकर्ता, उदारवादी, संविधानवादी, राष्ट्रवादी, क्रान्तिकारी, जनान्दोलनकारी धाराओं के पुरोधा एक-दूसरे के पूरक न बन सके।

फलत: भारत माता को बन्धनमुक्त कराने में केवल एक सुदीर्घ कालखण्ड ही व्यतीत नहीं हुआ,अपितु स्वातंत्र्य देवी का पदार्पण भी मातृभूमि के पातकीय विभाजन के साथ हुआ। इस विषय में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की यह टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि दुनिया के अन्यान्य देशों में ’अन्य नेतागण अपने-अपने देश को कम अनुयायियों के साथ और अल्प कालावधि में स्वतंत्र कराने में सफल रहे हैं।’

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में पैदा हुए। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती देवी था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। उन्होंने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थें। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थें।

अपने सम्पूर्ण जीवन की आहुति भारत माता के बन्धन काटने में चढ़ा देने वाले सुभाष बाबू उनमें से एक ऐसे अत्यन्त प्रमुख राजनेता हैं, जो १९१६ में प्रेसीडेंसी कालेज, कोलकाता से उस वक्त निष्कासित कर दिए गए थे जब वे बी.ए. के विद्यार्थी थे। वर्ष १९१९ में दर्शन शास्त्र विषय में प्रथम श्रेणी में बी.ए. (आनर्स) की उपाधि कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्जित करने के बाद इंग्लैण्ड में मात्र आठ मास के अध्ययन उपरान्त आई.सी.एस. की प्रतियोगात्मक परीक्षा उतीर्ण कर उन्होंने योग्यता सूची में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया। किन्तु व्रिटिश शासन की पराधीनता से घोर वितृष्णा के कारण अप्रैल, १९२१ में इंग्लैण्ड में अपने निवास के दौरान ही उससे त्यागपत्र दे दिया।

1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए, कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

5 नवंबर 1925 को देशबंधू चित्तरंजन दास का कोलकाता में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की खबर मंडाले जेल में रेडियो पर सुनी। मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो जाने के बावजूद अंग्रेज़ सरकार ने रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे इलाज के लिए यूरोप चलें जाए। लेकिन सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यु हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू इलाज के लिए डलहौजी चले गए।

सुभाष बाबू को भारतीय राजनीतिक क्षितिज से तिरोहित करने की पराकाष्ठा यद्यपि जनवरी, १९३९ में उनके द्वारा डा. पट्टाभि सीतारमैय्या को पराजित करने की घटना से सम्बंधित है, क्योंकि उस समय महात्मा जी और उनके समर्थकों ने मार्च, १९३९ के कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में सुभाष बाबू द्वारा प्रस्तुत छह मास में भारत को स्वाधीनता देने से संबंधित अन्तिमेत्थम्-प्रस्ताव न केवल ठुकरा दिया था, अपितु उसके साथ ही कांग्रेस कार्यसमिति का गठन करना भी असम्भव बना दिया था। 1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धति पसंद नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। हालांकि, गाँधीजी उनके इस विचार से सहमत नहीं थे।

1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ति अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष पर बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सीतारमैय्या को चुना। रविंद्रनाथ ठाकुर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने के कारण कई वर्षों बाद पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ।

3 मई 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए जनजागरण शुरू कर दिया। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। मजबूर होकर सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। मगर अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी कि सुभाषबाबू युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हें उनके ही घर में नजरबंद कर दिया।

उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए। आखिर, 29 मई 1942 को सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूचि नहीं थी। उन्होंने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होंने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ति से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।

पूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया। जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिनों पश्चात नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।

21 अक्तूबर 1943 को नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे़ हुए भारतीय युद्धबंदियोंको भर्ती किया। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतों के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।
पूर्व एशिया में नेताजी ने जगह-जगह भाषण करके वहाँ भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद करने का आह्वान किया। उन्होंने अपने आह्वान में संदेश दिया- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। नेताजी ने इन द्वीपों का नाम शहीद और स्वराज द्वीप रखा। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनो फौजो को पीछे हटना पड़ा। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा।

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होंने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के के बाद से ही उनका कुछ भी पता नहीं चला।

अवनीश सिंह। 22 जनवरी 2011

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