Sunday 21 October 2012

सेक्स और सियासत का कॉकटेल


राजनीति को सत्ता, सुंदरी व सियासत का खेल कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इसका ताजा उदाहरण अगस्त महीने के पहले  सप्ताह में लगातार दो मर्डर मिस्ट्री, जिसने सियासी गलियारों में सनसनी पैदा कर दी है। देखा जाये तो यह दोनों मामले हरियाणा से जुड़े हैं और दोनों के केन्द्र बिन्दु में कांग्रेस के बड़े नेताओं के नाम शामिल हैं। कुछ महीनें पहले राजस्थान में घटित भवरी देवी हत्याकांड के छीटों के दाग कांग्रेस के दामन से धुले भी नहीं थे कि हरियाणा सरकार के मंत्री गोपाल कांडा ने फिर से पार्टी का दामन को दागदार कर दिया।
गौरतलब है कि जब-जब सेक्स और सियासत का कॉकटेल हुआ है, तब-तब हंगामा बरपा है। किसी न किसी महिला ने अपनी जान गंवाई है। एक नेता से प्यार करने का ऐसा अंजाम होगा शायद किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। अभी दो दिन पहले एमडीएलआर एयरलाइंस की पूर्व महानिदेशक गीतिका शर्मा की अशोक बिहार स्थित अपने ही घर में आत्महत्या का मामला सामने आया। इस मामले में गीतिका ने अपने सुसाइट नोट में हरियाणा सरकार के गृह राज्य एवं स्थानीय निकाय मंत्री गोपाल कांडा को मौत का जिम्मेदार बताया है। इस घटना की जांच अभी चल ही रही थी कि हरियाणा की पूर्व उप-महाधिवक्ता फिजा उर्फ अनुराधा बाली की उनके चंडीगढ़ स्थित घर से लाश मिलने से सनसनी फैल गई है।
शायद ही किसी ने सोचा होगा कि हरियाणा के पूर्व डिप्टी सीएम चंद्रमोहन के प्यार में पागल अनुराधा बाली उनसे शादी करने के लिए धर्म परिवर्तन भी कर लेगी। लेकिन उन्होंने ऐसा किया और फिजा बन गई। इधर चंद्रमोहन ने भी इस्लाम स्वीकार कर अपना नाम चांद मोहम्मद कर लिया। दोनों का निकाह हुआ। लेकिन विवाह के बाद इनके बीच सब कुछ ठीक-ठाक नहीं रहा। 7 दिसंबर 2009 को दोनों ने सार्वजनिक रूप से माना था कि उन्होंने धर्मपरिवर्तन करके इस्लामिक कायदे से निकाह कर लिया है। निकाह के 20 दिनों बाद ही चांद ने फिजा को छोड़ दिया और अपनी पहली पत्नी के पास लौट गए। चंद्रमोहन पहले से ही शादीशुदा थे। उनके दो बच्चे भी हैं। अनुराधा वकील थी और मोहाली के एक बिजनेसमैन से उनका तलाक हो चुका था।
फिजा ने चांद के खिलाफ पुलिस शिकायत भी दर्ज करवाई। लेकिन हरियाणा पुलिस द्वारा चांद को क्लीन चिट दे दी गई। इस बीच एक इंटरव्यू में फिजा का कहना था कि चांद उनका इस्तेमाल केवल सेक्स के लिए करते थे। फिजा ने कहा था, "अगर चांद मुझसे सच्चा प्यार करते तो 20 दिनों में मुझे नहीं छोड़ देते। जब उन्हें लगा कि वो मुझसे आसानी से शारीरिक संबंध नहीं बना पा रहे हैं तो उन्होंने मुझसे शादी करने को कहा।"
चंद्रमोहन द्वारा ऐसा किए जाने से भजनलाल जहां काफी नाराज थे, वहीं उनके रिश्तेदार भी पूरी कोशिश कर रहे थे कि चंद्रमोहन फिजा को छोड़ वापस घर लौट आएं। आखिरकार उनकी कोशिशें कामयाब हुईं और चंद्रमोहन उर्फ चांद मोहम्मद अचानक फिजा को बिना कुछ बताए लंदन चले गए, जहां उनके बच्चे पढ़ाई कर रहे थे। बाद में मीडिया से बातचीत में उन्होंने बताया कि वे अल्कोहलिज्म का इलाज कराने लंदन गए थे। वापस आने के बाद वे पूरे धार्मिक रीति-रिवाज के साथ विश्नोई समाज में फिर दाखिल हुए और अपनी पत्नी के साथ रहने लगे। लेकिन दबाव बनाए जाने के बाद कुछ ही दिनों में वे फिजा के साथ उसके घर पर रहने चले गए। इस दौरान इनकी अश्लील हरकतें मीडिया की सुर्खियों में छाई रहीं। घर और बाहर, खुलेआम आपत्तिजनक स्थितियों में सामने आने के कारण इन्हें मुहल्ले के लोगों का विरोध भी झेलना पड़ा। लेकिन दोनों के साथ रहने का यह सिलसिला लंबे समय तक नहीं चल पाया और चंद्रमोहन फिर फिजा को उसके सूरत-ए-हाल पर छोड़ अपने घर लौट आए। इसके बाद इन दोनों के बारे में शायद ही कोई खबर आई हो। इस बीच चन्द्रमोहन भले ही आरामतलब जिंदगी जी रहे हैं, लेकिन उनके झूठे प्रेम जाल में फंसी अनुराधा बाली के जीवन का दुखद अंत हो गया।
सियासत में ऐसे कई औऱ भी उदाहरण हैं जिनसे खद्दर दागदार हुई है। राजस्थान सरकार के पूर्व मंत्री व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता महिपाल मदेरणा का नर्स भंवरी देवी के साथ अवैध संबंधों की बात सामने आने के बाद भवरी की हत्या ने राजनीति, अतिमहत्त्वाकांक्षा और लालच की एक औऱ दास्तान लिख दी। बात चाहे भोपाल के शेहला मसूद हत्याकांड की हो या उत्तर प्रदेश के मधुमिता हत्याकांड की सभी के तार राजनीतिक गलियारों से होकर गुजरे हैं। पिछले साल भोपाल में आरटीआई एक्टिविस्ट शेहला मसूद की हत्या कर दी गई। इस मामले में सीबीआई ने शेहला के दोस्त जाहिदा परवेज को गिरफ्तार कर लिया।
जाहिदा पर आरोप है कि उसे अपने पति और शेहला के बीच अवैध संबंधों को लेकर शक था। इसी आधार पर उसने सुपारी देकर अपनी दोस्त की हत्या करवा दी। लेकिन इस हत्याकांड में राजनीतिक मोड़ उस समय आया जब केश की जांच कर रही सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में कहा कि हत्या में शामिल होने की आरोपी जाहिदा परवेज के भाजपा नेता ध्रुव नारायण से जिस्मानी रिश्ते थे। 'फर्स्ट पोस्ट' वेबसाइट ने चार्जशीट के आधार पर बताया कि जाहिदा ध्रुव नारायण के प्यार में इतनी पागल थी कि उसने अपने दफ्तर में विधायक के साथ सेक्स करते हुए वीडियो भी बना लिए था। यह वीडियो सीबीआई के कब्जे में हैं। यह मर्डर केस पूरी तरह से सेक्स और पॉलिटिक्स के बीच उलझा हुआ है।
ऐसा ही मामला उत्तर प्रदेश में भी देखा गया। फैजाबाद की रहने वाली शशि लॉ की स्टूडेंट थी। शशि आनंद सेन के करीबी हो गई थी। वह राजनीति में आना चाहती थी। इसलिए शार्टकट के रूप में उसने आनंद सेन को चुना। शशि के पिता खुद एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। आनंद सेन ने भी उसकी आंखों में बसे इस ख्बाव को देख लिया था। फिर शुरू हुआ वायदों का सिलसिला। वायदे बढ़ते गए, जिस्मानी दूरियां मिटती गईं। 22 अक्टूबर 2007 को शशि गायब हुई। लंबी छानबीन और धड़पकड़ के बाद पता चला कि वह इस दुनिया से जा चुकी थी। उसकी हत्या हो गई थी। एक दशक पहले मधुमिता भी सियासत की भेंट चढ़ गयी। मधुमिता एक कवयित्री थी। उस समय यूपी के मंत्री अमरमणि से उनका प्यार परवान चढ़ गया। दोनों गुपचुप मिलने लगे। यह बात मंत्री की पत्नी को रास नहीं आई। उसने मधुमिता की हत्या 2003 में करा दी। फिलहाल अमरमणि जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं।
अवनीश सिंह
हिन्दुस्थान समाचार
नई दिल्ली -

मीडिया में भाषा की चुनौती


अवनीश सिंह
हिन्दी पत्रकारिता के स्वतंत्रेत्तर युग को देखा जाए तो इसने छ: दशक से अधिक की अपनी यात्रा पूरी कर ली है। इस दौरान पत्रकारिता में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले लेकिन पिछले दस वर्षों में हिन्दी के समाचार पत्र पहले जैसे नहीं रहे। पत्र औऱ पाठक दोनों ने ग्लोवलाइजेशन का मजा चखा। प्रसारण माध्यमों में हुई तब्दीली साफ दिखी। पिछले दशक में जन्में टेलीवीजन चैनलों की गिनती उगली पर करना असंभव है। माना जा रहा है कि नये समाचार माध्यमों के बढ़ने से मीडिया में भाषा को लेकर नयी-नयी चुनौतियां सामने आ रही हैं। ऐसे में हिन्दी भाषा के अस्तित्व पर म़डरा रहे संकट से किस प्रकार उबरा जाए यह एक विचारणीय प्रश्न बनता जा रहा है। समाचार माध्यमों की भाषा किस तरह की हो यह लंबे समय से बहस का मुद्दा बना हुआ है। हिन्दी को लेकर सोचने वाले तरह-तरह के सवाल उठाते हैं, जैसे कि क्या ये हिन्दी के लिए संकट की सूचना है, क्या हिन्दी संक्रमण के काल से गुजर रही है, क्या हिन्दी इन परिवर्तनों और प्रयोगों के बीच जीवित रह पाएगी?
पत्रकारिता का साहित्यिक स्वरूप
साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक अटूट रिश्ता रहा है। एक जमाना वह था जब इन दोनों को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था। ज्यादातर पत्रकार साहित्यकार थे और ज्यादातर साहित्यकार पत्रकार। पत्रकारिता में प्रवेश की पहली शर्त ही यह हुआ करती थी कि उसकी देहरी में कदम रखने वाले व्यक्ति का रुझान साहित्य की ओर हो, लेकिन पिछले दो दशकों से इस रिश्ते में एक दरार आ गई है जो लगातार चौड़ी हो रही है। इसलिए आज की पत्रकारिता पर यह आरोप लग रहा है कि वह साहित्य की उपेक्षा कर रही है।
आजादी से पहले हिंदी पत्रकारिता के तीन चेहरे थे। पहला चेहरा था-आजादी की लड़ाई को समर्पित पत्रकारिता, दूसरा चेहरा था साहित्यिक उत्थान को समर्पित पत्रकारिता का और तीसरा चेहरा समाज सुधार करने वाली पत्रकारिता का था। कहना न होगा कि इन तीनों को आजादी का महाभाव जोड़ता था। इसलिए साहित्यिक पत्रकारिता भी यदि राजनीतिक विचारों से ओत-प्रोत थी तो राजनीतिक पत्रकारिता में भी साहित्य की अंत: सलिला बहा करती थी।
पत्रकारिता में नये प्रयोग
समाचार माध्यमों में हिन्दी के साथ जिस तरह से आये दिन नये-नये प्रयोग किए जा रहे हैं उससे तो यही लगता है कि अब हमारी हिन्दी दूसरी भाषाओं की गोंद में जा बैठी है। सड़क से लेकर संसद तक के लोगों को ध्यान में रखकर काम कर रही मीडिया इन चुनौतियों से कैसे निपटे यह एक विचारणीय प्रश्न है। हिन्दी प्रसारण की भाषा संस्कृत के नजदीक हो या उर्दू के या फिर उसका रोमांस अंग्रेजी के साथ हो। वहीं दूसरी तरफ मीडिया की चिंता यह भी है कि श्रोताओं और दर्शकों की मन:स्थिति को जाने-समझे बिना किस तरह प्रसारण या प्रकाशन करे। इन सबके बीच यह भी विषय सामने आता है कि क्या हिन्दी इतनी सक्षम है कि भारतीय समाज इसे फलते-फूलते देखना चाहता है, अगर चाहता भी है तो क्या शहरों की अंग्रेजी परस्त शासन व्यवस्था इसे पनपने देगी।
औद्योगिक दौर में पत्रकारिता
पत्रकारिता पर यह भी आरोप है कि उसका स्वरूप पहले की तरह स्पष्ट नहीं रह गया है। उसके मकसद को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं। उसमें अनेक स्तरों पर बिखराव दिख रहा है तो कई स्तरों पर अराजकता भी लक्षित हो रही है। सवाल उत्पन्न होता है कि ये आरोप कहां तक सही हैं और यदि पत्रकारिता के पास उनका कोई जवाब है तो वह क्या है? इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि हाल के वर्षों में मीडिया का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रीय एजेंडा निर्धारित करने में आज मीडिया की भूमिका कहीं बढ़ गई है। आज वह केवल एक मिशन नहीं रह गया है, वह एक बड़े प्रोफेशन, बल्कि उद्योग में तब्दील हो चुका है। मीडिया रपटों की माने तो वर्तमान में 10.3 अरब डॉलर का यह उद्योग 2015 में वह 25 अरब डालर यानी सवा लाख करोड़ से अधिक का हो जाएगा। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 600 से अधिक टीवी चैनल, 10 करोड़ पे-चैनल देखने वाले परिवार, 70,000 अखबार हैं। यहां हर साल ।,000 से अधिक फिल्में बनती हैं। जाहिर है, इतने बड़े क्षेत्र को संभालना इतना आसान नहीं रह गया है। दुर्भाग्य यह है कि इसके लिए कोई सुविचारित नीति भी नहीं है।
अवनीश सिंह

Wednesday 15 August 2012

खबर पक्की है, देश तरक्की कर रहा है!


अवनीश सिंह
हिन्दुस्तान की आजादी को 65 साल से अधिक हो गया। अब हो गया तो हो गया, इसमें हम कर भी क्या सकते हैं। हम क्या कोई भी कुछ नहीं कर सकता है। आज 65 साल का हुआ है कल सौ का हो जाएगा। फिर भी देश तो वही रहेगा। हमारे राजनीतिक दलों के नेताओं की तरह देश भी अपनी जगह यथावत और स्थिर है। आज भी उत्तर में हमारी रखवाली पर्वत राज हिमालय कर रहा है, दक्षिण में सागर चरण धो ही रहा है। जब इतने सालों में न तो हिमालय की ऊंचाई में कोई कमीं आयी और न ही सागर की गहराई में, तो देश में परिवर्तन कैसे आ सकता है।
लेकिन फिर भी कुछ लोग मानने को तैयार ही नहीं है। वो अपनी ढपली पर सिर्फ एक ही राग अलाप रहे हैं कि इन वर्षों में देश ने बहुत तरक्की की है। राजधानी दिल्ली में भी यह अफवाह रही कि देश प्रगति कर रहा है और इस अफवाह का किसी ने खंडन नहीं किया। शायद यह खबर पक्की हो कि देश ने प्रगति की है। अब कहां से की है इसका पता लगाया जा रहा है। आजादी के इन वर्षों में अगर थोड़ा बहुत परिवर्तन हुआ है तो यह कि आदमी सस्ता और सामान मंहगे हुए हैं, शरीर सस्ता और कपड़े मंहगे हुए हैं। घरों की इज्जत होटलों की शरण में पहुंच गयी है। जिन मुद्दों पर घर के बंद कमरों में चर्चा होती थी वह अब टेलीवीजन चैनल के स्टूडियों में हो रही है। शिक्षितों की संख्या में बढ़ोतरी हुई तो बेरोजगारों की फौज भी खड़ी हो गयी। जहां लड़के हैं वहा पढ़ाने वाला नहीं है। जहां पढ़ाने वाले हैं वहां लड़के नहीं है और जहां दोनो हैं वहां पढ़ाई नहीं है। देश में योजनाएं लागू हुई तो आम आदमियों तक पहुंचने से पहले भ्रष्टाचार की शरण में चली गई। इस बीच अगर देश में कुछ यथावत है तो वह हैं नेता।
देश की जितनी दुर्गति आजादी के पहले अंग्रेजों ने नहीं की उससे अधिक दुर्गति देश के नेताओं ने कर दी। जैसे ही देश को आजादी मिली नेताओं ने महसूस किया कि खादी का कपड़ा मोटा, भद्दा और खुदरा होता है और बदन बहुत कोमल और नाजुक होता है। इसलिए नेताओं ने यह निर्णय लिया कि खादी को महीन किया जाये, रेशम किया जाए, टेरेलीन किया जाए। अंग्रेजों की जेल में नेताओं पर बहुत अत्याचार हुए थे। उन्हें पत्थर और सीमेंट की बेंचों पर सोने को मिला था, सो आजादी के बाद कपास का उत्पादन बढ़ाया गया, उसके गद्दे तकिये भरे गये और नेता उस पर विराज कर (टिक कर) देश की समस्याओं पर चिंतन करने लगे। देश में समस्याएं बहुत थी, नेता भी बहुत थे। समस्याएं बढ़ रही थी, नेता भी बढ़ रही थी। एक दिन ऐसा आया कि समस्याएं नेता हो गयी और नेता समस्या हो गये। फिर दोनो ही बढ़ने लगे।
आजादी से लेकर अब-तक यह समझने की कोशिश की जा रही है कि नेता के मायने क्या होते हैं? खुद नेता भी यही समझने की कोशिश कर रहें हैं कि नेता किसे कहते हैं? लेकिन देश की जनता ने नेता को ब्रह्मा की तरह नेति-नेति के तरीके से समझा। कहा गया कि इस चर-अचर जगत में मनुष्य जितने रूपों में मिलता है नेता उससे जादा रूपों में मिलते है। कुछ बातें ऐसी हैं जो सार्वभौमिक सत्य की तरह अकाट्य है। जैसे नेता अमर है। वह मर नहीं सकता। उसके दोष बनें रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आयेंगे। जब-तक पक्षपात, परिवारवाद, निर्णयहीनता, ढीलापन, दोमुहापन, दिखावा, सस्ती आकांक्षा, लालच और भ्रष्टाचार कायम है तब-तक इस देश से नेताओं को कोई समाप्त नहीं कर सकता। नेता कायम रहेंगे, गरज यह कि कहीं भी किसी भी रूप में आपको नेता ही नजर आयेंगे। तथापि साठ साल हों या छह सौ साल नेता इस देश का और हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाले हैं।
शरद जोशी ने तीन दशक पहले अपने एक लेख में कांग्रेस का जो गुणगान किया था वो आज भी इस राजनीतिक दल और उनके नेताओं पर फलीभूत हो रही है। “कांग्रेस हमारे देश पर तंबू की तरह तनी हुई है, गुब्बारे की तरह फैली हुई है, हवा की तरह सनसनाती रही है और बर्फ की तरह जमी है। इन सालों में कांग्रेस ने देश में कई कीर्तिमान बनाए, उसे सरकारी कर्मचारियों ने लिखा औऱ विधानसभा के सदस्यों ने पढ़ा। पोस्टरों, किताबों, सिनेमा की स्लाइडों, गरज यह देश के हर जर्रे-जर्रे पर कांग्रेस का नाम लिखा गया। रेडियों, टीवी, डाक्यूमेंटरी, सरकारी बैठकों और सम्मेलनों के साथ-साथ दसों दिशाओं में सिर्फ एक ही गूंज है वह है कांग्रेस…”
कांग्रेस की अनुगूंज आज भी देश के आम नागरिकों के मस्तिष्क में समय-समय पर गूंजती रहती है, कभी यह मंहगाई के रूप में तो कभी भ्रष्टाचार के रूप में। स्थिति यह है कि आज भ्रष्टाचार प्रजातंत्र की जड़ सींच रहा है। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन से जहां पूरे विश्व में भारत ने नाम कमाया वहीं इसमें हुए भ्रष्टाचार से उससे भी ज्यादा नाम नेताओं ने कमाया। इस बीच टूजी से संचार के क्षेत्र में जितनी क्रांति नहीं आयी होगी उससे अधिक क्रांति इसमें हुए घोटालों से राजनीति में आयी।
इतिहास साक्षी है कि कांग्रेस ने हमेसा संतुलन की नीति को बनाए रखा। जो कहा वह किया नहीं, जो किया वह बताया नहीं, जो बताया वह था ही नहीं और जो था वह गलत था। अहिंसा की नीति पर विश्वास किया और उस नीति को संतुलित किया लाठी और गोली से। सत्य की नीति पर चली, लेकिन सच बोलने वालों से सदा नाराज रही। पेड़ लगाने का आंदोलन चलाया औऱ ठेके पर जंगलों को साफ कराया। शराब के ठेके दिये, दारू के कारखाने खुलवाए; पर नशाबंदी का समर्थन करती रही। हिन्दी की हिमायती रही पर अंग्रेजी को चालू रखा। योजना बनायी तो लागू नहीं होने दिया। लागू की तो रोक लगा दीया और जब रोक दिया तो कभी चालू नहीं की। समस्याएं उठी तो कमीशन बैठाया, रिपोर्ट आयी तो कभी पढ़ा ही नहीं गया।
इस दौरान कांग्रेस ने संतुलन की कई नई परिभाषाओं को जन्म दिया। ऐसे में कहा जा सकता है कि कांग्रेस का इतिहास निरंतर संतुलन का इतिहास रहा है। समाजवाद की समर्थक रही, पर पूंजीवाद को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। नारा दिया तो पूरा नहीं किया। प्राइवेट सेक्टर के खिलाफ पब्लिक सेक्टर को खड़ा किया और पब्लिक सेक्टर के खिलाफ प्राइवेट सेक्टर को। जब कुछ समस्या आयी तो दोनों के बीच खुद खड़ी हो गयी। एक को बढ़ने नहीं दिया और दूसरे को घटने नहीं दिया।
आत्म निर्भरता पर जोर देते रहे और विदेशों से समर्थन मांगते रहे। “यूथ” को बढ़ावा दिया, बुड्ढों को टिकट दिया। जो जीता वह मुख्यमंत्री बना, जो हारा सो गवर्नर हो गया। जो केन्द्र में बेकार थे उसे राज्य में भेज दिया, जो राज्य में बेकार थे उसे केन्द्र में ले आये। जो दोनो जगह बेकार था उसे अंबेसेडर बना दिया। वह देश का प्रतिनिधित्व करने लगा। कांग्रेस ने कभी किसी को निराश नहीं किया। संतुलन की इंतिहा यह हुई कि उत्तर में जोर था दक्षिण में कमजोर थे। दक्षिण में जीते तो उत्तर में हार गये। जोर बना रहा कमजोर पड़ते गये। सच्चे अर्थों में कहा जाए तो कांग्रेस कार्य के अनुरूप व्यक्ति नहीं बल्कि व्यक्ति के अनुरूप कार्यों की हिमायती रही।

Tuesday 27 March 2012

साथी सदस्यों के बढ़बोलेपन से मुश्किल में अन्ना


भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष कर रही टीम अन्ना पर मुश्किलें कम होने का नाम ही नहीं ले रहीं हैं। पिछले दिनों मुंबई के आन्दोलन में घटते समर्थकों से चिंतित अन्ना ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर शक्ति प्रदर्शन इस समस्या से निताज तो पा लिया लेकिन अपने साथी सदस्यों के बड़बोले पन से वह एक बार फिर मुश्किल में आ गये।
टीम अन्ना अपनी बयानबाजी से सभी राजनीतिक दलों को नाराज तो कर दिया, पर अब उसे समझ में नहीं आ रहा है कि इससे उबरा कैसे जाए। भीड़ देखकर राजनीतिक दलों के खिलाफ बोलना टीम अन्ना की आदत में शुमार होता जा रहा है। टीम अन्ना भले ही इसे अपनी रणनीति के तौर पर देख रही हो लेकिन अन्ना इन बातों से चिंतित नजर आ रहे हैं।
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार टीम अन्ना में अब इस बात पर विचार चल रहा है कि किस तरह यह साबित किया जाए कि अन्ना और उनके साथी जद(यू) नेता शरद यादव समेत किसी भी सांसद की भावनाएं आहत करना नहीं चाहते थे। शायद अन्ना हजारे को इस बात का आभास हो रहा है कि जब एक बार फिर से उनका आंदोलन पटरी पर आने लगा है तब सभी राजनीतिक दलों को अपने खिलाफ कर देना समझदारी नहीं है। विशेषकर भाजपा, जद(यू) और भाकपा जैसे दलों को अपने से दूर करना अन्ना को काफी नुकसानदेह लग रहा है।
विदित हो कि टीम अन्ना का आन्दोलन हर बार किसी न किसी बयान के लिए मीडिया में छाया रहता है। कभी टीम अन्ना की सदस्य व पूर्व आईपीएस किरण वेदी के नाटकीय अभिनय को लेकर तो कभी फिल्म अभिनेता ओमपुरी द्वारा अन्ना के मंच से सांसदों के खिलाफ अपशब्द कहे जाने को लेकर। इन सब घटना क्रम के बीच अन्ना हजारे को बार-बार सफाई देनी पड़ती है। इससे पहले भी केंद्रीय मंत्री शरद पवार को थप्पड़ वाले बयान पर भी अन्ना और टीम के प्रमुख सदस्य अपना स्पष्टीकरण देते नजर आये थे।
टीम अन्ना को लगता है कि राजनेताओं के खिलाफ जनता में जो गुस्सा है, उसे भुनाया जा सकता है। इसी रणनीति को लेकर टीम अन्ना पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, महासचिव राहुल गांधी, केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम, मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह को निशाना बनाया करती थी लेकिन अब उसने जद(यू) के नेता शरद यादव को निशाना बनाया है।
अन्ना के करीबियों के मुताबिक अन्ना भी महसूस कर रहे हैं कि जंतर-मंतर के मंच से जब मनीष सिसौदिया ने जद(यू) नेता शरद यादव पर अमर्यादित टिप्पणी की थी तब ही उन्हें इसे सुधारना चाहिए था। अन्ना के करीबी मानते हैं कि अगर स्थिति उसी समय स्पष्ट कर दी जाती तो समूची संसद सोमवार को अन्ना के खिलाफ रुख अख्तियार नहीं करती।
विदित हो कि टीम अन्ना के अहम सदस्य मनीष सिसोदिया ने रविवार को जंतर-मंतर पर मंच से भाषण देते हुए जेडी (यू) अध्यक्ष शरद यादव को परोक्ष रूप से चोर बता दिया था। मंच पर लगे स्क्रीन पर संसद में शरद यादव द्वारा दिए गए भाषण के अंश दिखाए जा रहे थे। उसमें दिखाया गया कि कैसे यादव ने प्रस्तावित लोकपाल बिल का विरोध किया था। संसद में यादव के इस भाषण के बीच मनीष ने माइक पर टिप्पणी की, 'इसे कहते हैं चोर की दाढ़ी में...' इसके बाद वह चुप हो गए और उनकी बात वहां मौजूद भीड़ ने पूरी करते हुए जोरदार आवाज में कहा '...तिनका' 

अवनीश राजपूत 27.03.2012

Friday 10 February 2012

भ्रष्टाचार का शिष्टाचार

नई दिल्ली, 02 फरवरी । सर्वोच्च न्यायालय ने 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले से जुड़े मुद्दे पर फैसला सुनाने के साथ ही गुरुवार को सरकार की साख पर करारा तमाचा जड़ दिया। पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा पर मुकदमा चलाने की मंजूरी दबाए रखने के मामले में किरकिरी झेल चुकी सरकार को शीर्ष अदालत ने बड़ा झटका देते हुए राजा के कार्यकाल में दिए गए स्पेक्ट्रम के 122 लाइसेंसों को गैरकानूनी और असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया। सरकार की आवंटन नीति को बेजा ठहराते हुए अदालत ने स्पेक्ट्रम की हिस्सेदारी बेच कर मोटा मुनाफा कमाने वाली कंपनियों एतिसलातयूनिटेक व टाटा टेली पर पांच-पांच करोड़ तथा लूप टेलीकामएसटेलएलायंज इन्फ्राटेक तथा सिस्तेमा श्याम पर 50-50 लाख का जुर्माना भी ठोंका।
जस्टिस एके गांगुली के लिए गुरुवार का दिन भले ही कोर्ट में आखिरी दिन रहा मगर उनका यह फैसला ऐतिहासिक बन गया है। इससे न सिर्फ कॉरपोरेट कानून प्रभावित होगाबल्कि लंबे समय में इसका असर सरकार की नीति और कॉरपोरेट के कामकाज पर भी होगा। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला केंद्रीय सत्ता के लिए एक और शर्मिदगी का क्षण है।
यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि उसके सामने ऐसे क्षण बार-बार आ रहे हैं। अभी दो दिन पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय को कठघरे में खड़ा किया था। खास बात यह है कि उस फैसले के केंद्र में भी पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा ही थे और ताजा फैसले में भी। 2जी स्पेक्ट्रम के सभी 122 लाइसेंस अवैध करार देकर उन्हें रद करने के शीर्ष अदालत के फैसले ने यह साबित कर दिया कि जब घोटालेबाज ए.राजा कुछ कारपोरेट घरानों से मिलकर मनमानी करने में लगे हुए थे तब केंद्रीय सत्ता सोई हुई थी। इससे साफ है कि स्पेक्ट्रम आवंटन की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं रही है और इसमें घोटाला हुआ है।


इस घोटाले के लिए संप्रग सरकार की सामूहिक विफलता को इंगित करना सर्वोच्च न्यायालय नहीं भूला। इसका आशय है कि घोटाले के लिए पूरी सरकार जिम्मेदार है और वह अपने आपको इससे अलग नहीं कर सकती। दुखक्षोभ और लज्जा की बात यह रही कि जब उसे झकझोर कर इस महाघोटाले से अवगत कराया गया तो उसने शुतुरमुर्गी आचरण का परिचय दिया। इतना ही नहीं उसकी ओर से हरसंभव तरीके से राजा का बचाव करने की भी कोशिश की गई।
यह सर्वविदित है कि सरकारी ठेके और लाइसेंस देने में भ्रष्ट तरीके अपनाए जाते हैंकानून तोड़े जाते हैंपक्षपात होता है और आमतौर पर जो कंपनी ज्यादा देती हैउसे ज्यादा मिलता है। गुरुवार को सर्वोच्च न्यायालय ने 122 टेलीकॉम लाइसेंस इसलिए रद्द कर दिएक्योंकि इन्हें जारी करते समय नीतियों का ठीक पालन नहीं हुआ और भ्रष्ट मंत्री ने रिश्वत लेकर लाइसेंस बांटे। पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने किसी नीति और उसकी खामियों पर सीधी टिप्पणी की है। कोर्ट ने 'पहले आओ-पहले पाओ'नीति को गलत और घातक करार दिया है। रद्द होने वाले लाइसेंस को लेकर बहुत लोगों को चिंता हैऔर इसके दूरगामी प्रभाव भी होंगे।
अगर लाइसेंस आवंटन में नीति का सही तरीके से पालन नहीं होता है तो भविष्य में यह फैसला लाइसेंस रद्द करने का आधार बन सकता है। आने वाले वर्षों में अनेक मामलों में इस फैसले को नजीर बनाकर उपयोग किया जाएगा। कानून की थोड़ी जानकारी रखने वाला भी यह समझ सकता है कि भविष्य में बड़े कॉन्ट्रैक्ट रद्द हो सकते हैं। खासकर अगर नीति का सही-सही पालन नहीं हुआ हो तो। फ्रॉड के आधार पर लाइसेंस रद्द करने के कई फैसले हुए हैं।
यह स्वान टेलीकॉम जैसी कंपनियों को सिर्फ लाइसेंस खरीद और बेचकर मुनाफा कमाने से रोकेगा। इस कंपनी ने 1,537 करोड़ रुपये में लाइसेंस खरीदा और एतिसालात को 4,500 करोड़ में हिस्सेदारी बेच दी। यह फैसला राजनीतिज्ञों को भी नीतियों के गलत इस्तेमाल या उनकी गलत व्याख्या करने से रोकेगा। नीति पर अमल होइस पर अब नेताओं से ज्यादा कॉरपोरेट्स को चिंता होगी। दूरसंचार मंत्री के पद पर रहते हुए ए. राजा ने कंपनियों को आशय पत्र जमा करने के लिए सिर्फ 45 मिनट का समय दिया। यही नहीं, 1600 करोड़ रुपये की बैंक गारंटी के लिए भी उन्हें कुछ घंटे का ही वक्त मिला।
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण समय वह था जब खुद प्रधानमंत्री ने राजा को क्लीनचिट देते हुए किसी तरह के घोटाले से इंकार किया। इसके बाद जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने घोटाले पर मुहर लगा दी तो सच को स्वीकार करने के बजाय इस संवैधानिक संस्था की ही खिल्ली उड़ाने का काम किया गया। यह काम सरकार ने भी किया और उसका नेतृत्व करने वाली कांग्रेस ने भी। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद बुरी तरह शर्मसार सरकार के पास अपनी सफाई में कहने के लिए कुछ भी नहीं हैलेकिन वह अभी भी खुद के सही होने और अपनी सेहत पर फर्क न पड़ने का दंभ भर रही है। इससे तो यही लगता है कि उसने यह ठान लिया है कि कुछ भी हो जाए वह सच का सामना करने के लिए तैयार नहीं होगी। यह और कुछ नहीं बल्कि बची-खुची साख गंवाने का सुनिश्चित रास्ता है।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद सारी गलती राजा पर थोपने के साथ ही स्पेक्ट्रम आवंटन की गलत नीति बनाने के लिए जिस तरह भाजपा से माफी मांगने के लिए कहा गया वह हास्यास्पद भी है और केंद्रीय सत्ता के अहंकारी रवैये का नमूना। केंद्र सरकार जानबूझकर इस तथ्य की अनदेखी कर रही है कि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पेक्ट्रम आवंटन के मामले में राजग सरकार की पहले आओ पहले पाओ नीति को त्रुटिपूर्ण करार देने के बावजूद संप्रग सरकार के इस तर्क को खारिज कर दिया कि 2008 के पहले के लाइसेंस भी खारिज किए जाने चाहिए।
यह समझना कठिन है कि केंद्र सरकार ने बदली हुई परिस्थितियों में स्पेक्ट्रम आवंटन की नीति को दुरुस्त करने की जरूरत क्यों नहीं समझी और वह भी तब जब इसकी मांग भी की जा रही थीक्या राजग शासन द्वारा तय की गई नीति कोई पत्थर की लकीर थीमौजूदा दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल की मानें तो सारी गड़बड़ी राजा ने की। उन्होंने ही रातोंरात नियम बदले और जब वह ऐसा कर रहे थे तो न तो वित्तमंत्री का उन पर कोई जोर चल रहा था और न ही प्रधानमंत्री का। क्या यह कहने की कोशिश की जा रही है कि दूरसंचार मंत्री के रूप में राजा प्रधानमंत्री और कैबिनेट से भी अधिक शक्तिशाली थेनि:संदेह ये कुतर्क सच्चाई स्वीकार करने से बचने के लिए दिए जा रहे हैं।

जहां तक प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग का संबंध है तो यह प्रत्येक लोकतांत्रिक देश में विपक्ष का अधिकार होता है कि वह सरकार के कामकाज की समीक्षा करे और उसके गलत कामों की निंदा करे और हरसंभव तरीके से सरकार पर दबाव बनाए,लेकिन यहां सवाल पूरे देश की जनता और संसद के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के प्रति सरकार की जिम्मेदारी का भी हैजिसे हर हाल में पूरा किया जाना होगा और उस पर खरा उतरना होगा। कम से कम 2जी मामले में सरकार इन पैमानों पर खरी नहीं उतरी है। इससे न केवल सरकार की किरकिरी हो रही हैबल्कि उसके साथ-साथ पूरे देश की छवि भी अंतरराष्ट्रीय जगत में दांव पर लग रही है।
यह एक चिंता की बात है कि देश की सरकार ही देश के लिए समस्या बन रही है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को एक नजीर के रूप में लिया जाना चाहिए और आगे के लिए सबक लेते हुए एक पारदर्शी और जवाबदेह प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आम जनता के लिए बहुत ही राहत लेकर आया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए यह मील का पत्थर साबित होगा। आखिर केंद्र सरकार और उसके रणनीतिकारों को अपनी भूल स्वीकार करने में संकोच क्यों हो रहा है?

Friday 7 October 2011

क्रांति पुरुष के निर्णय किसी तर्कशास्त्र या न्यायशास्त्र के आधार पर नहीं होते


एक अभूतपूर्व मंथन से हम सब और हमारा देश पिछले कई सालों से गुजर रहा है। इस वक्त, जबकि हम इस मंथन के एक पड़ाव पर आकर खड़े हैं, अवश्कता है इसके सिंहावलोकन की, कुछ निरिक्षण-परिक्षण, लेखा-जोखा और मुल्यांकन की। जनजीवन में समय-समय पर आने वाले ऐसे ज्वार और मंथन का सम्यक आंकलन कर सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा दिया गया। 1974 में गुजरात के छात्रों ने निर्णायक लड़ाई लड़कर यह साबित कर दिखाया कि भारत की छात्र-शक्ति, ‘समलक्ष्यऔर समबोधके रास्ते पर आगे बढ़कर उन मूल्यों को स्थापित करने के लिये प्रभावी भूमिका अदा कर सकती है; जिनके लिये आजादी की लड़ाई लड़ी गयी थी।
क्रांति पुरुष के निर्णय किसी तर्कशास्त्र या न्यायशास्त्र के आधार पर नहीं होते। वे प्रायः सहजस्फूर्त होते हैं। ऐसे ही महापुरुष थे जयप्रकाश नारायण। पांच जून, 1975 की विशाल सभा में जयप्रकाश नारायण ने पहली बार सम्पूर्ण क्रान्तिके दो शब्दों का उच्चारण किया। क्रान्ति शब्द नया नहीं था, लेकिन सम्पूर्ण क्रान्तिनया था। सम्पूर्ण क्रान्ति जयप्रकाश नारायण का विचार व नारा था जिसका आह्वान उन्होने भ्रष्ट सत्ता को उखाड़ फेकने के लिये किया था। लोकनायक नें कहा कि सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल है - राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रान्ति होती है। सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जय प्रकाश नारायण जिनकी हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। बिहार से उठी सम्पूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी थी। जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे।
आन्दोलन के दौरान सम्पूर्ण बिहार में कहीं भी जाने पर यह स्पष्ट दिख पड़ता था कि यह एक जन आन्दोलन है। छात्र, अध्यापक, वकील, कर्मचारी, दुकानदार- व्यापारी, बच्चे-किशोर-युवा-अधेड़-वृध्द, पुरुष-महिला, भूखे-नंगे मजदूर- किसान से लेकर धनवान, लेखक-कवि-साहित्यकार- पत्रकार-विद्वान और सभी वर्ग के लोगों का जे. पी. के आन्दोलन के प्रति सहानुभूति और सहयोग भाव था। पटना के गांधी मैदान पर लगभग पांच लाख लोगों की अति उत्साही भीड़ भरी जनसभा में देश की गिरती हालत, प्रशासनिक भ्रष्टचार, महंगाई, बेरोजगारी, अनुपयोगी शिक्षा पध्दति और प्रधान मंत्री द्वारा अपने ऊपर लगाये गए आरोपों का सविस्तार उत्तर देते हुए जयप्रकाश नारायण ने बेहद भावातिरेक में जनसाधारण का पहली बार सम्पूर्ण क्रान्तिके लिये आह्वान किया।
राजनीतिक क्षेत्र में जे.पी. सत्ता के विकेन्द्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे। वे चाहते थे कि प्रत्याशियों का चयन तथा राजसत्ता पर नियंत्रण जनता के द्वारा होना चाहिए। वे लोक चेतना के द्वारा जनता को जगाकर उसे लोकतंत्र का प्रहरी बनाना चाहते थे ताकि नीचे के कर्मचारी से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक सबके काम काज पर निगरानी रखी जा सके। वे चाहते थे कि जन प्रतिनिधियों को समय से पूर्व वापस बुलाने का अधिकार उस क्षेत्र की जनता को मिले ताकि जन प्रतिनिधियों को अपने निर्वाचन क्षेत्र के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके।
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में मार्च, 1974 में प्रारम्भ हुए बिहार छात्र आन्दोलन का दौर 15 महीने रहा। 18 महीने की इमरजेंसी आई। भारत की लोकसभा के चुनाव घोषित हुए, जिसे आन्दोलन समर्थकों ने जे. पी. के नेतृत्व में लोकशाही बनाम तानाशाहीको मुद्दा बनाकर लड़ा। इमरजेंसी की आकस्मिक घोषणा के फलस्वरूप सम्पूर्ण क्रान्तिकी संघर्ष-यात्रा लोकतंत्र के रक्षा-अभियानमें बदल गयी और सरकार को हटाना ही सम्पूर्णता लक्ष्यबन गया। 1977 के चुनाव नतीजों ने सिध्द कर दिया कि जे. पी. के आन्दोलन के प्रति जनता की पूरी सहमति और स्वीकृति थी।
समता, स्वतंत्रता और भातृत्व की भावना के आधार पर लोक नायक जय प्रकाश नारायण नए समाज की रचना चाहते थे ताकि एक नए मनुष्य का निर्माण हो सके। वे क्रान्ति का सूत्रपात गांव से करना चाहते थे। उनका मानना था कि गांव की हर एक समस्या का चिन्तन ही सम्पूर्ण या समग्र क्रान्ति का पहलू है। इसलिए रचना, संघर्ष, शिक्षण और संगठन की चतुर्विधि प्रक्रिया से वो गांवों को बदलना चाहते थे। उनका कहना था कि जब गांव बदलेंगे तो शहर भी बदले बिना नहीं रहेंगे।
अवनीश सिंह

Tuesday 13 September 2011

संस्कृत मां, हिन्दी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी


अवनीश सिंह
हिन्दी-दिवस की आप सभी को बधाई। १४ सितम्बर १९४९ को संविधान में हिन्दी को राष्ट्र भाषा स्वीकार किया गया था। वह दिन निश्चित ही स्वतंत्र भारत के लिए गौरवपूर्ण दिन था। एक लम्बा अन्तराल बीत गया है किन्तु आज तक हम हिन्दी को वह स्थान नहीं दिला पाए जिसकी वह अधिकारिणी है। अनेकता मे एकता का मंत्र को प्रतिपादित करने और हमारे देश को एकजुट बनाए रखने मे राष्ट्रभाषा से बडा योगदान पहले किसी का था और आगे किसी का होगा अत: अपनी राष्ट्रभाषा पर हमे गर्व होना चाहिए। इसे अपनाने और हर जगह प्रयोग मे लाने से ही हम अपनी महान सांस्कृतिक विरासत को बचा सकते है।
संस्कृत मां, हिन्दी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है, ऐसा कथन डॉ. फादर कामिल बुल्के का है जो संस्कृत और हिन्दी की श्रेष्ठता को बताने के लिए सम्पूर्ण है। मगर आज हमारे देश मे देवभाषा और राष्ट्रभाषा की दिनो दिन दुर्गती होती जा रही है। या यूं कह ले की आज के समय मे मां और गृहिणी पर नौकरानी का प्रभाव बढता चला जा रहा है तो गलत नही होगा। लेकिन ऐसा क्यूं है ? आखिर वो कौन सी बात है जो हिन्दी को हर पल अंग्रेजी के आगे झुकने पर मजबूर कर देती है? भारत मे तो हिंदी जाननेवाला व्यक्ति देश के किसी कोने में जाकर अपना काम चला लेता है। फिर हिन्दी मे बोलना या लिखना आज कल के दौर मे कम क्यूं होता जा रहा है ?
वर्तमान में हम अपनी भाषा और अपनी संस्कृति दोनो से ही दूर होते जा रहे हैं। एक विदेषी भाषा सीखना बुरा नहीं किन्तु अपनी पहचान खो बैठना बुरा है। अपनी भाषा से दूर होने के कारण हम अपनी संस्कृति से भी दूर हो रहे हैं। बल्कि यों कहें कि अपनी पहचान भी खो रहे हैं। हमारी दशा उस मूर्ख जैसी है जिसके पास पूर्वजों की बहुमूल्य विरासत है किन्तु वह उसका उपयोग नहीं कर पाता और भिखारी बना रहता है।
आज आप कही भी जा कर देख ले, एक अंग्रेजी बोलने वाले को बडी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है पर अगर उसी बात को कोई हिन्दी मे कह्ता है तो उसे उतना मान नही मिल पाता है। आज के समय मे नयी पीढी तो ये कहने मे जरा भी गुरेज नही करती की मेरी हिन्दी अच्छी नही है अत: मै अंग्रेजी मे ही बात करने या कहने को प्राथमिकता दूंगा। महात्मा गाँधी ने कहा था की अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिये ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता समझता है। मगर आज जितना प्रयास हिन्दी को बचाने के लिए किया जा रहा है, उससे कही ज्यादा जोर अंग्रेजी को बढाने के लिए हो रहा है। तो क्या अब ये मान लिया जाए की बिना अंग्रेजी बोले हम पूर्ण भारतीये नही कहे जा सकते ?
हमारी हिन्दी भाषा संसार की सर्वोत्तम भाषा है। इसकी वैग्यानिकता इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। जैसे बोली जाती है वैसे ही लिखी जाती है। तर्क संगत है। सुमधुर और सरल है। भूमावृति के कारण नित्य नवीन शब्दों को जन्म देने वाली है। एक-एक शब्द के कितने ही पर्याय वाची हैं। हर शब्द का सटीक प्रयोग होता है। अलग-अलग संदर्भों में एक ही शब्द नहीं, अलग-अलग शब्द हैं। समन्वय की प्रवृति के कारण दूसरी भाषाओं के शब्दों को जल्दी ही अपने में समा लेती है। माँ के समान बड़े प्यार से सबको अपने आँचल में समा लेती है। यही कारण है कि दूसरी भाषाओं के शब्द यहाँ आकर इसी के हो जाते हैं। फिर भी हम इसका लाभ नहीं उठा पा रहे। यह हमारा दुर्भाग्य ही तो है।
विडम्बना तो यह है कि परतन्त्रता में तो हिन्दी का विकास होता रहा किन्तु जब से देश स्वतन्त्र हुआ, हिन्दी का विकास ही रुक गया उल्टे उसकी दुर्गति होनी शुरू हो गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शासन की नीति तुष्टिकरण होने के कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा के स्थान पर "राजभाषा" बना दिया गया। विदेश से प्रभावित शिक्षानीति ने हिन्दी को गौण बना कर अग्रेजी के महत्व को ही बढ़ाया। हिन्दी की शिक्षा धीरे-धीरे मात्र औपचारिकता बनते चली गई। दिनों-दिन अंग्रेजी माध्यम वाले कान्वेंट स्कूलों के प्रति मोह बढ़ते चला गया और आज हालत यह है कि अधिकांशतः लोग हिन्दी की शिक्षा से ही वंचित हैं।
भाषा के प्रचार के लिए प्रभावशाली माध्यम है मीडिया किन्तु टीबी के निजी चैनलों ने हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल करके हिन्दी को गर्त में और भी नीचे ढकेलना शुरू कर दिया और वहाँ प्रदर्शित होने वाले विज्ञापनों ने तो हिन्दी की चिन्दी करने में "सोने में सुहागे" का काम किया। इसी प्रकार से रोज पढ़े जाने वाले हिन्दी समाचार पत्रों, जिनका प्रभाव लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है, ने भी वर्तनी तथा व्याकरण की गलतियों पर ध्यान देना बंद कर दिया और पाठकों का हिन्दी ज्ञान अधिक से अधिक दूषित होते चला गया।
मै ये बात अंग्रेजी का विरोध करने के लिए नही कह रहा हूं, बल्कि मेरी ये बात तो हिन्दी के उपर अंग्रेजी को प्राथमिकता देने पर केन्द्रीत है। आज हिन्दी बोलने वाले को निकृष्ट और अंग्रेजी बोलने वाले को उत्कृष्ट समझे जाने पर है। आज हमारा देश बदल तो बहुत गया है मगर इस बदलाव ने हमारी मूल पहचान को भी बदल कर रख दिया है। जो देश मानव-भाषा की जननी कही जाती है, आज उसी देश की भाषा को लिखने और बोलने मे, उसी देश के लोग अगर परहेज करने लगे तो फिर इससे बडा सांस्कारिक पतन और क्या कहा जा सकता है! आज अगर आप प्रवाहिक अंग्रेजी या फिर कामचलाऊ अंग्रेजी भी बोल सकते है तो आप नि:संदेह किसी अच्छे जगह पर नौकरी पाने के ज्यादा हकदार बन जाते है, उन लोगो के बनिस्पत जो बहुत अच्छी हिन्दी लिख और बोल दोनो सकते है।
वाल्टर चेनिंग ने विदेशी भाषा का पुरजोर विरोध करते हुए कहा था की विदेशी भाषा का किसी स्वतंत्र राष्ट्र के राजकाज और शिक्षा की भाषा होना सांस्कृतिक दासता है। तो क्या भारत आज भी अंग्रेजों की सांस्कृतिक दासता का शिकार है ? आज तो भारत मे ज्यादातर राजकाज और शिक्षा की भाषा अंग्रेजी ही नजर आती है। तो इसका अर्थ तो यही हुआ की की आज भी हम सम्पूर्ण आजाद नही हुए है बडी शर्म आती है उन लोगों को देखकर जो अपनी हिन्दी को अपनाने मे शर्म महसूस करते है मै दावे के साथ ये कह सकता हूं की दुनिया की कोई भी ऐसी बात नही बनी जिसे हम हिन्दी मे कह नही सकते या फिर समझा नही सकते। फिर क्यूं हर बात के लिए अंग्रेजी का मुंह ताकते है हम हिन्दुस्तानी ?
आज हम हर स्तर पर आधुनिक तो होते जा रहे है लेकिन साथ साथ हम उन मूल्यों को भी खोते जा रहे है जो हमारे देश की एक विशिष्ट पहचान, दुनिया के सामने प्रस्तुत करती थी। आज के समय मे हिन्दी का अपमान करने पर तुले हम भारतीयों को एक बार तो ये जरूर सोचना चाहिए की क्या दुनिया का कोई भी ऐसा देश है जिसकी मूल भाषा अंग्रेजी हो और उस देश के लोग उसे ना बोलकर हिन्दी को अपनाने लगे हों भाषा त्यागने का उदाहरण भारत से ज्यादा शायद और कही देखने को ना मिले।
कही एक बहुत सटीक बात कही गई है की सरलता, बोधगम्यता और शैली की दृष्टि से विश्व की भाषाओं में हिन्दी महानतम स्थान रखती है। आज उस महान हिन्दी रूपी बिन्दी को सर से उतारने पर तुले हम भारतीयों को एक बार रूक कर ये देखना पडेगा कि हमारा ये कृत्य हमारी आने वाले पीढी को क्या देकर जाएगा कही ऐसा ना हो की आने वाली पीढी अपनी राष्ट्र भाषाई निर्धनता के लिए हमे कभी माफ ना करे। देशोन्नति के लिये हिंदी भाषा को पहले भी अपनाया गया था और भविष्य मे भी इसे बरकरार रखने की आवश्यक्ता है जो भाषा जन्म से ही अपने पैरों पर खडी मानी गई है जरुरत है उसे अपने साथ लेकर चलने की क्यूंकी इसी से हम अपने चिर काल से विकसित संस्कारों की छ्टा पूरी दुनिया मे बिखेर सकते है।
हिन्दी हमेशा उन्नत रहे फले फूले और हिन्दुस्तानियों के सर पर बिन्दी बन चमकती रहे की आशा के साथ मैथिलीशरण गुप्त की कुछ पंक्तियों से इस लेख का समापन करता हूं – “मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती भगवान भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती