बदलाव की बयार में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी की सत्ता बदल गई है। केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट का लाल किला दरक गया, तो तमिलनाडु और पुडुचेरी में डीएमके-कांग्रेस की सत्ता सरक गई। असम ही एक ऐसा सूबा रहा जो बदलाव की बयार में अछूता रह गया। पांच राज्यों की विधान सभा के रिजल्ट से यह साफ हो गया है कि भारतीय मतदाता भ्रष्टाचार को अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता। मतदाताओं ने यह साफ तौर पर यह संदेश भी दिया है कि अगर वोट पाना है तो काम करना पड़ेगा।
तमिलनाडु के नतीजे यह बताने के लिए काफी हैं कि मतदाता भ्रष्टाचार को अब और सहने के मूड में कतई नहीं हैं। डीएमके के कई नेता पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। यहां तक कि भ्रष्टाचार के छींटे करुणा के घर तक पहुंच गए और बेटी कनिमोझी पर गिरफ्तारी का खतरा मंडरा रहा है। पार्टी के बड़े नेता और पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जेल में हैं। इन सब कारणों से भ्रष्टाचार चुनाव का अहम मुद्दा बन गया और करुणानिधि के नेतृत्व वाली डीएमके की बहुत किरकिरी हुई। अगर डीएमके की जीत हो जाती, तो यूपीए को यह कहने का मौका मिल जाता कि जनता की नजर में वह बेदाग है। जनता ने यह मौका उससे छीन लिया। मतदाताओं ने इसकी सजा करुणानिधि सरकार को दी और इस बार के चुनाव में जयललिता की पार्टी को शानदार बहुमत मिला।
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव परिणामों ने साफ़ कर दिया कि अब वामपंथी विचारधारा का जमाना बीत गया। जनता ने सबके लिए एक अजेंडा तय कर दिया है: काम करो। वोट उसे मिलता है जो काम करता है या जिससे काम करने की उम्मीद की जा सकती है। इन चुनावों का यही सबसे बड़ा सबक है। बंगाल ने लेफ्ट को 34 साल तक आजमा कर देख लिया। अब उसे तरक्की चाहिए, जिसका वादा ममता बनर्जी कर रही हैं। पश्चिम बंगाल में 1977 के बाद पहली बार वाम मोर्चा को विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा। ममता की आंधी में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। 294 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनाव में तृणमूल- कांग्रेस गठबंधन ने सत्ताधारी लेफ्ट फ्रंट को करारा झटका देते हुए दो-तिहाई बहुमत हासिल किया।
बंगाल में लेफ्ट ने बरसों तक बदलाव की हवा को रोके रखा। उसने राज्य के हर कोने में ऐसा जाल फैला दिया, जिसे उधेड़ना मुश्किल था। राज्य की युवा पीढ़ी अपने लिए एक खुली जगह की तलाश कर रही थी। बसु के बाद वहां सीपीएम की नीतियों को बदलने की बात सोचने वाले बुद्धदेव भट्टाचार्य की रफ्तार इतनी धीमी थी कि बदलाव की आकांक्षा का दबाव पार्टी झेल नहीं पाई। इसके ठीक उलट, ममता का अपने बूते पर खड़ा होना और इस पुराने निजाम को चुनौती देना युवाओं को आकर्षित करने वाला साबित हुआ। इसके बाद सिंगूर और नंदीग्राम ने आग में घी का काम किया। ममता ने भूमि अधिग्रहण को लेकर लोगों की नाराजगी को समझा और वह गांववालों व किसानों की आवाज बनकर उभरी। तृणमूल कांग्रेस ने इन मौकों का भरपूर फायदा उठाया और खासकर ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत की।
कुल मिलाकर इतना कहा जा सकता है कि तमिलनाडु में जहां इन चुनावों में भ्रष्टाचार सबसे बढ़ा मुद्दा था और यूपीए जिस तरह जयललिता की आंधी में उड़ गया है, उससे ममता बनर्जी के कंधों पर सवार होकर बंगाल का किला जीत लेने की उसकी सफलता की चमक जरूर मद्धिम पड़ गयी है। वहीं दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल में ‘लाल किला’ ढह जाने और केरल में कांटे की टक्कर के बावजूद सत्ता गंवा देने के बाद लेफ्ट फ्रंट, खासकर उसकी अगुआ पार्टी सीपीएम को अब राष्ट्रीय राजनीति में अपने वजूद के सवालों से रू-ब-रू होना पड़ेगा। पहली बार लेफ्ट इतना बेदम हुआ है कि बंगाल और केरल दोनों जगह से उखड़कर त्रिपुरा में जा सिमटा है। हाल के बरसों में लेफ्ट तीसरे मोर्चे के नाम पर कांग्रेस और बीजेपी को डराता आया है। उसका वह हथियार अब कमजोर हो जाएगा। देश की राजनीति में अलग समीकरण बनेंगे।
केरल में कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ को मामूली बहुमत मिला। वैसे, तो केरल में हर बार सत्ता परिवर्तन होता है लेकिन इस बार सीपीएम के नेताओं ने अपनी हार की कहानी खुद लिखी। मुख्यमंत्री वी. एस. अच्युतानंदन और केरल से पार्टी के बड़े नेता व पोलित ब्यूरो के सदस्य विजयन आपस में ही लड़ते रहे। पार्टी में कलह का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि अच्युतानंदन का नाम प्रत्याशियों की लिस्ट में शामिल ही नहीं था। बाद में जब उनके समर्थकों ने हंगामा किया, तो उन्हों उम्मीदवार बनाया गया। इसके अलावा पार्टी के कुछ नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे।
असम में तरुण गोगोई से अमन-चैन की उम्मीद है, इसलिए असम में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई है। राज्य के 76 वर्षीय मुख्यमंत्री तरुण गोगोई तीसरी बार सत्ता संभालने की तैयारी में हैं। जनता को काम करने वाले लोगों पर भरोसा है, इसीलिए राज्यों में नेताओं का निजी करिश्मा चल निकला है। गुजरात में मोदी और बिहार में नीतीश पहले ही इस बदलाव की नुमाइंदगी कर चुके हैं।
पुड्डुचेरी में पूर्व मुख्यमंत्री एन. रंगासामी के नेतृत्ववाले ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस (आआईएनआरसी) एवं ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) गठबंधन ने दो तिहाई बहुमत हासिल किया है। यहां कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन को नुकसान उठाना पड़ा है। ज्ञात हो कि पूर्व मुख्यमंत्री एन. रंगासामी ने दो महीने पहले कांग्रेस से अलग होकर फरवरी में ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस नाम से पार्टी बनाकर विधानसभा चुनाव में जबर्दस्त जीत हासिल की है। उनकी इस कामयाबी ने कांग्रेस के तीसरी बार सत्ता में काबिज होने के मंसूबों पर पानी फेर दिया है
इन चुनाव परिणामों पर विचार करते समय हमें आंध्र प्रदेश और कर्नाटक हुए उपचुनाव परिणामों को नहीं भूलना चाहिए, जहां कांग्रेस को करारी मात मिली है। कर्नाटक के उपचुनावों में जहां भाजपा ने जीत दर्ज करके अपनी दमदार उपस्थिति का अहसास कराया तो पूर्व मुख्यमंत्री और स्वर्गीय वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगनमोहन ने कडप्पा में जीत दर्ज करके कांग्रेस के लिए नई चुनौतियों का संकेत दिया है। दक्षिण के राज्य में भाजपा की उपस्थिति कांग्रेस के लिए चिंता का सबब बन सकती है तो आंध्र प्रदेश में जगनमोहन का जादू नया समीकरण खड़ा कर सकता है।
आपकी बात सौ प्रतिशत सही है और जो आप ने कहा कि असम में सत्ता परिवर्तन नहीं हो सका तो मैं एक बात कहना चाहूँगा कि यह कांग्रेस कि नहीं बल्कि तरुण गोगोई के द्वारा अपने राज्य के विकास के लिए किये गए कार्यों का देन हैं जो वहां सत्ता परिवर्तन न हो सका ...लिखते रहें हमारी शुभकामना आपके साथ है ..
ReplyDelete