Monday, 28 February 2011

अपने गांव की होली की खूबसूरत यादें

मीलों दूर अपने गांव-घरों की होली की खूबसूरतयादों को खुद की तरह दिल्ली में बसा रहे हैं। पहली बार इस बात का एहसास हो रहा है की होली की हुडदंग गांव के मित्रों की टोली के बिना कितनी अधूरी है। आज ज़ब सुबह-सुबह मेरे गांव के मित्र मंडली का फोन आया तो उन्हें इस बात से निराशा हुयी कि इस बार मई होली में घर नहीं आ रहा हूँ। बचपन की खूबसूरत यादों में सजे हुए वो पल याद आने लगे। हां याद है कि वो गांव के बाहर पोखरे के पास जहां से हमने न सिर्फ़ होली को जिया था बल्कि होलिकादहन की उन शामों का भी भरपूर मज़ा लिया था। उन दिनों का मौसम और इंसानों का मिजाज़ आजकल के मौसम की तरह बेइमान नहीं होता था।

स्कूल से आते समय कंधे पर बस्ता और हाथों में गन्ना चूसते हुए हमारी स्कूल से घर की यात्रा मस्ती और शरारत के बीच बीत जाती.. फ़गुनाहट की आहट तब सुनाई देने लगती। होलिका दहन की तैयारी तो कम से कम दस दिनों पहले ही शुरू हो जाती थी। तैयारी क्या पहले से तय कर लिया जाता था कि इस बार कौन सा रेंड का पेड़ होलिका के लिए गाड़ा जायेगा और फ़िर पूरी गैंग सारे नियमित सांध्यकालीन खुराफ़ाती कार्यक्रम ..मसलन किसके खेत से गन्ने कि पत्तियों का बोझा लाना है और किसके खलियान से शरपत उठाना... झाडों को चट कर जाना चाहे फ़िर उसके लिए कितनी ही खरोंचें हाथ में लग जाए इन सबके बीच जिस बात का सबसे अधिक ख्याल रखा जाता था वह यह कि अपने एरिये में सबसे ऊँची लपट वाली होलिका हमारी ही जलनी चाहिए।

पहली मीटिंग में दो बातें तय हो जाती थीं एक ये कि इस बार होलिका दहन के लिए किस-किस के घर से पुआल, शरपत वगैरह निर्धारित समय पर उठाना है। लल्लन के घर से होलिका में जलने लाएक सामान  कब गायब की जा सकती है और धोबियाना की होलिका कब लुतनी है... लेकिन इसके बावजूद हम लकडी इकट्ठे करने में जी तोड मेहनत करते थे। एक बार का वाकया याद है जब हम लोगों ने मिलकर लल्लन के घर के बहार रखा करीब पंद्रह बोझ शरपत होलिका के दिन ही उठा लाये थे। और जबतक वो यह पता करने आते लड़कों ने बिना मुहूर्त के ही होलिका दहन कर डाला।

लेकिन उस बार के होलिका की लपटें क्या ऊपर तक उठीं थीं ..। मुझे याद है कि उन दिनों ये आज का आलम नहीं होता और कभी कभी तो आग तापने तक में मजा आता था मगर फ़िर भी गर्मी तो अपना पहला कदम बढा चुकी होती ही थी। उनदिनों मुझे जो अजीब लगा था वो यह की जलती होलिका के बीच से रेंड के बचे हुए हिस्से को निकलना और उसे गांव की शरहद से दूर दूसरे गांव में पहुचना इसके पीछे क्या कारण था मुझे आज भी समझ नहीं आया। लेकिन मैंने भी अतिउत्साहित होकर एक दो बार यह काम कर प्रसशा हासिल की थी।

हा इस बीच जो सबसे रोचक घटना होली में घटित होती वो है गांव के कुछ ऐसे बुड्डे (जिनसे गाली खाने में सबको मज़ा आता हो) को टार्गेट कर रात के अंधरे में गोबर से नहलाना। काम काफी दिलेरी का होता था लेकिन हुडदंग होती जरुर थी। हाँ यह बात अलग थी कि इस काम में गांव के कुछ बड़े लोग  ही उकसाते थे। जब पुरखों से लेकर वर्तमान पीढ़ी के लोगों को चिल्ला-चिल्लाकर याद करता तो समझ लिया जाता था कि मिशन कामयाब हो गया। और एकाध दो घंटे एक्सक्लूसिव गलियों का लाइव प्रसारण देखने के लिए पूरा गांव जुट जाता था।

अगले दिन सुबह होते ही मंडली के जुटने में ज्यादा देर नहीं लगती थी। सबसे अधिक आनंद इस बात में आता था की सबसे पहले किसको किसने रंगों से लथेरा है। सुबह से लेकर दोपहर तक तो रंग कम कीचड़ और गोबर की होली अधिक होती थी। दोपहर में नहाई धुलाई उसके बाद जो गुझिया और खीर पूरी पर हाथ साफ़ करिए।

थोडी देर आराम फ़िर उसके बाद मंडली चलती थी साफ़ झक्क कपडों में होली खेलने के लिए यानि अबीर लगाने। बारी बारी से सबके घर पर जाना। बधाई शुभकामना के बाद ..ठंडई सेवन भी ..और वो शाम कब यादगार दिन की समाप्ति को मदमस्त कर देती थी ये पता नहीं चलता था। ये खुमारी सालों साल याद रहती थी ……

Thursday, 24 February 2011

युवाओं के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद


स्वामी विवेकानंद ने भारत में हिन्दू धर्म का पुनरुद्धार तथा विदेशों में सनातन सत्यों का प्रचार किया। इस कारण वे प्राच्य एवं पाश्चात्य देशों में सर्वत्र समान रूप से श्रद्धा एवं सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। दुनिया में हिंदू धर्म और भारत की प्रतिष्ठा स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद एक आध्यात्मिक हस्ती होने के बावजूद अपने नवीन एवं जीवंत विचारों के कारण आज भी युवाओं के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। विवेकानंद जन्म 12 जनवरी 1863 ई., सोमवार के दिन प्रात:काल सूर्योदय के किंचित् काल बाद 6 बजकर 49 मिनट पर हुआ था।

मकर संक्रांति का वह दिन हिन्दू जाति के लिए महान उत्सव का अवसर था और भक्तगण उस दिन लाखों की संख्‍या में गंगाजी को पूजा अर्पण करने जा रहे थे। अत: जिस समय भावी विवेकानंद ने इस धरती पर पहली बार साँस ली, उस समय उनके घर के समीप ही प्रवाहमान पुण्यतोया भागीरथी लाखों नर-नारियों की प्रार्थना, पूजन एवं भजन के कलरव से प्रतिध्वनित हो रही थीं।

स्वामी विवेकानंद के जन्म के पूर्व, अन्य धर्मप्राण हिन्दू माताओं के समान ही, उनकी माताजी ने भी व्रत-उपवास किए थे तथा एक ऐसी संतान के लिए प्रार्थना की थी, जिससे उनका कुल धन्य हो जाए। उन दिनों उनके मन-प्राण पर त्यागीश्वर शिव ही अधिकार जमाए हुए थे, अत: उन्होंने वाराणसी में रहने वाली अपने रिश्ते की एक महिला से वहाँ के वीरेश्वर शिव के मंदिर में विशेष पूजा चढ़ाका आशीर्वाद माँगने का अनुरोध किया था। एक रात उन्होंने स्वप्न में महादेव जी को ध्यान करते देखा, फिर उन्होंने नेत्र खोले और उनके पुत्र के रूप में जन्म लेने का वचन दिया। नींद खुलने के बाद उनके आनंद की सीमा न रही थी।

माता भुवनेश्वरी देवी ने अपने पुत्र को शिवजी का प्रसाद माना और उसे वीरेश्वर नाम दिया। परंतु परिवार में उनका नाम नरेंद्र नाथ दत्त था और संक्षेप में उन्हें नरेंद्र तथा दुलार में नरेन कहकर संबोधित किया जाता था। कलकत्ते के जिस दत्त वंश में नरेंद्र नाथ का जन्म हुआ था, वह अपनी समृद्धि, सहृदयता, पांडित्य एवं स्वाधीन मनोवृत्ति के लिए सुविख्यात था। उनके दादा श्री दुर्गाचरण ने अपने प्रथम पुत्र का मुख देखने के बाद ही ईश्वर प्राप्ति की अभिलाषा से गृह त्याग कर दिया था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता थे। उन्होंने अँगरेजी तथा फारसी साहित्य का गहन अध्ययन किया था।

उनकी माता भुवनेश्वरी देवी एक अलग ही साँचे में ढली थीं। वे देखने में गंभीर और आचरण में उदार थीं तथा प्राचीन हिन्दू परंपरा का प्रतिनिधित्व करती थीं। वे एक भरे पूरे परिवार की मा‍लकिन थीं और अपने अवकाश का समय सिलाई एवं भजन गाने में बिताती थीं। रामायण एवं महाभारत में उनकी विशेष रुचि थी तथा इन ग्रंथों के अनेक अंश उन्हें कंठस्थ भी थे। निर्धनों के लिए वे आश्रय थीं। अपनी ईश्वर भक्ति, आंतरिक शांति तथा अपनी व्यस्तता के बीच तीव्र अनासक्ति के फलस्वरूप वे सबके सम्मान की अधिकारिणी हुई थीं। नरेंद्रनाथ के अतिरिक्त उन्हें और भी दो पुत्र तथा चार पुत्रियाँ हुईं, परंतु उनमें से दो पुत्रियाँ अल्प आयु में ही चल बसी थीं।

पगड़ी़ तथा भड़कील पोशाक में सजे संन्यासी का व्यक्तित्व उसे बड़ा लुभावना लगता था। वह प्राय: बड़े होकर वैसा ही बनने की आकांक्षा व्यक्त करता था। नरेंद्र का उसके संसार त्यागकर संन्यासी हो जाने वाले पितामह से काफी साम्य दिख पड़ता था और इस कारण कइयों का विचार था कि उन्होंने ही नरेन के रूप में पुनर्जन्म लिया है। भ्रमण करने वाले संन्यासियों में बालक की बड़ी रुचि थी और उन्हें देखते ही वह उत्साहित हो उठता।

एक दिन एक ऐसे परिव्राजक संन्यासी उसके द्वार पर आकर भिक्षा माँगने लगे। नरेंद्र ने उनको अपनी एकमात्र वस्तु-कमर से लिपटा हुआ एक छोटा से नया वस्त्र दे दिया। तब से जब कभी आस-पड़ोस में कोई संन्यासी दिख जाते तो नरेंद्र को एक कमरे में बंद कर दिया जाता। तथापि जो कुछ भी हाथ में आता, वह खिड़की के रास्ते उनकी ओर डाल देता। इन्हीं दिनों माँ के हाथों में उसकी प्रारंभिक शिक्षा का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार उसने बंगला की वर्णमाला, कुछ अँगरेजी शब्द तथा रामायण एवं महाभारत की कथाएँ सीखीं।

1886 में रामकृष्ण के निधन के बाद स्वामी विवेकानंद ने जीवन एवं कार्यों को एक नया मोड़ दिया। 25 वर्ष की अवस्था में उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। गरीब, निर्धन और सामाजिक बुराई से ग्रस्त देश के हालात देखकर दुःख और दुविधा में रहे। उसी दौरान उन्हें सूचना मिली कि शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है। उन्होंने वहाँ जाने का निश्चय किया। वहाँ से आने के बाद देश में प्रमुख विचारक के रूप में उन्हें सम्मान और प्रतिष्ठा मिली। 1899 में उन्होंने पुन: पश्चिम जगत की यात्रा करने के बाद भारत में आध्यात्मिकता का संदेश फैलाया। स्वामी विवेकानंद नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते थे।

उनका मानना था कि "जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है– अंत में उनकी शक्ति के फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो संसार को शिक्षा प्रदान करता है।"

अब से करीब 118 साल पहले 11 सितंबर, 1893 को स्वामी विवेकानंद ने शिकागो ‘पार्लियामेंट आफ रिलीजन’ में भाषण दिया था, उसे आज भी दुनिया भुला नहीं पाती। इस भाषण से दुनिया के तमाम पंथ आज भी सबक ले सकते हैं। इस अकेली घटना ने पश्चिम में भारत की एक ऐसी छवि बना दी, जो आजादी से पहले और इसके बाद सैकड़ों राजदूत मिलकर भी नहीं बना सके। स्वामी विवेकाननंद के इस भाषण के बाद भारत को एक अनोखी संस्कृति के देश के रूप में देखा जाने लगा। अमेरिकी प्रेस ने विवेकानंद को उस धर्म संसद की महानतम विभूति बताया था। और स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखा था, उन्हें सुनने के बाद हमें महसूस हो रहा है कि भारत जैसे एक प्रबुद्ध राष्ट्र में मिशनरियों को भेजकर हम कितनी बड़ी मूर्खता कर रहे थे। यह ऐसे समय हुआ, जब ब्रिटिश शासकों और ईसाई मिशनरियों का एक वर्ग भारत की अवमानना और पाश्चात्य संस्कृति की श्रेष्ठता साबित करने में लगा हुआ था।

उदाहरण के लिए 19वीं सदी के अंत में अधिकारी से मिशनरी बने रिचर्ड टेंपल ने मिशनरी सोसायटी इन न्यूयार्क को संबोधित करते हुए कहा था- भारत एक ऐसा मजबूत दुर्ग है, जिसे ढहाने के लिए भारी गोलाबारी की जा रही है। हम झटकों पर झटके दे रहे हैं, धमाके पर धमाके कर रहे हैं और इन सबका परिणाम उल्लेखनीय नहीं है, लेकिन आखिरकार यह मजबूत इमारत भरभराकर गिरेगी ही। हमें पूरी उम्मीद है कि किसी दिन भारत का असभ्य पंथ सही राह पर आ जाएगा। जब शिकागो धर्म संसद के पहले दिन अंत में विवेकानंद संबोधन के लिए खड़े हुए और उन्होंने कहा- अमेरिका के भाइयो और बहनो, तो तालियों की जबरदस्त गड़गड़ाहट के साथ उनका स्वागत हुआ, लेकिन इसके बाद उन्होंने हिंदू धर्म की जो सारगर्भित विवेचना की, वह कल्पनातीत थी। उन्होंने यह कहकर सभी श्रोताओं के अंतर्मन को छू लिया कि हिंदू तमाम पंथों को सर्वशक्तिमान की खोज के प्रयास के रूप में देखते हैं। वे जन्म या साहचर्य की दशा से निर्धारित होते हैं, प्रत्येक प्रगति के एक चरण को चिह्नित करते हैं।

स्वामी विवेकानंद ने तब जबरदस्त प्रतिबद्धता का परिचय दिया, जब एक अन्य अवसर पर उन्होंने ईसाई श्रोताओं के सामने कहा- तमाम डींगों और शेखी बखारने के बावजूद तलवार के बिना ईसाईयत कहां कामयाब हुई? जो ईसा मसीह की बात करते हैं वे अमीरों के अलावा किसकी परवाह करते हैं! ईसा को एक भी ऐसा पत्थर नहीं मिलेगा, जिस पर सिर रखकर वह आप लोगों के बीच स्थान तलाश सके..आप ईसाई नहीं हैं। आप लोग फिर से ईसा के पास जाएं। एक अन्य अवसर पर उन्होंने यह मुद्दा उठाया- आप ईसाई लोग गैरईसाइयों की आत्मा की मुक्ति के लिए मिशनरियों को भेजते हैं।

साफगोई और बेबाकी विवेकानंद का सहज गुण था। देश में वह हिंदुओं से अधिक घुलते-मिलते नहीं थे। जब उनके आश्रम में एक अनुयायी ने उनसे पूछा कि व्यावहारिक सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना का उनका प्रस्ताव संन्यासी परंपरा का निर्वहन कैसे कर पाएगा? तो उन्होंने जवाब दिया- आपकी भक्ति और मुक्ति की कौन परवाह करता है? धार्मिक ग्रंथों में लिखे की किसे चिंता है? अगर मैं अपने देशवासियों को उनके पैरों पर खड़ा कर सका और उन्हें कर्मयोग के लिए प्रेरित कर सका तो मैं हजार नर्क भी भोगने के लिए तैयार हूं। मैं मात्र रामकृष्ण परमहंस या किसी अन्य का अनुयायी नहीं हूं। मैं तो उनका अनुयायी हूं, जो भक्ति और मुक्ति की परवाह किए बिना अनवरत दूसरों की सेवा और सहायता में जुटे रहते हैं।

उन्हें हिंदुत्व के विभिन्न पहलुओं की विवेचना के लिए बाद में भी अमेरिका से न्यौते मिलते रहे। जहां-जहां वह गए उन्होंने बड़ी बेबाकी और गहराई से अपने विचार पेश किए। उन्होंने भारत के मूल दर्शन को विज्ञान और अध्यात्म, तर्क और आस्था के तत्वों की कसौटी पर कसते हुए आधुनिकता के साथ इनका सामंजस्य स्थापित किया। उनका वेदांत पर भी काफी जोर रहा।

विवेकानंद ने यह स्पष्ट किया कि अगर वेदांत को जीवन दर्शन के रूप में न मानकर एक धर्म के रूप में स्वीकार किया जाता है, तो यह सार्वभौमिक धर्म है- समग्र मानवता का धर्म। इसे हिंदुत्व के साथ इसलिए जोड़ा जाता है, क्योंकि प्राचीन भारत के हिंदुओं ने इस अवधारणा की संकल्पना की और इसे एक विचार के रूप में पेश किया। एक अलग परिप्रेक्ष्य में श्री अरबिंदो ने भी यही भाव प्रस्तुत किया- भारत को अपने भीतर से समूचे विश्व के लिए भविष्य के पंथ का निर्माण करना है। एक शाश्वत पंथ जिसमें तमाम पंथों, विज्ञान, दर्शन आदि का समावेश होगा और जो मानवता को एक आत्मा में बांधने का काम करेगा। स्पष्ट तौर पर मात्र एक भाषण ने ऐसी ज्योति प्रज्ज्वलित की, जिसने पाश्चात्य मानस के अंतर्मन को प्रकाश से आलोकित कर दिया और ऊष्मा से भर दिया।

अवनीश। 11 जनवरी 2011

कुशल नेतृत्वकर्ता नेता जी सुभाष चन्द्र बोस


यद्यपि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में भारत माता ने ऐसे अनेक नर-पुंगवों को जन्म दिया था, जिनकी तुलना विश्व के किसी अन्य देश से नहीं की जा सकती। किन्तु इसके बावजूद इसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संचालित राष्ट्रीय आन्दोलन की त्रासदीपूर्ण विडम्बना ही कहा जाएगा कि आवेदनकर्ता, उदारवादी, संविधानवादी, राष्ट्रवादी, क्रान्तिकारी, जनान्दोलनकारी धाराओं के पुरोधा एक-दूसरे के पूरक न बन सके।

फलत: भारत माता को बन्धनमुक्त कराने में केवल एक सुदीर्घ कालखण्ड ही व्यतीत नहीं हुआ,अपितु स्वातंत्र्य देवी का पदार्पण भी मातृभूमि के पातकीय विभाजन के साथ हुआ। इस विषय में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की यह टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि दुनिया के अन्यान्य देशों में ’अन्य नेतागण अपने-अपने देश को कम अनुयायियों के साथ और अल्प कालावधि में स्वतंत्र कराने में सफल रहे हैं।’

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में पैदा हुए। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती देवी था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। उन्होंने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थें। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थें।

अपने सम्पूर्ण जीवन की आहुति भारत माता के बन्धन काटने में चढ़ा देने वाले सुभाष बाबू उनमें से एक ऐसे अत्यन्त प्रमुख राजनेता हैं, जो १९१६ में प्रेसीडेंसी कालेज, कोलकाता से उस वक्त निष्कासित कर दिए गए थे जब वे बी.ए. के विद्यार्थी थे। वर्ष १९१९ में दर्शन शास्त्र विषय में प्रथम श्रेणी में बी.ए. (आनर्स) की उपाधि कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्जित करने के बाद इंग्लैण्ड में मात्र आठ मास के अध्ययन उपरान्त आई.सी.एस. की प्रतियोगात्मक परीक्षा उतीर्ण कर उन्होंने योग्यता सूची में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया। किन्तु व्रिटिश शासन की पराधीनता से घोर वितृष्णा के कारण अप्रैल, १९२१ में इंग्लैण्ड में अपने निवास के दौरान ही उससे त्यागपत्र दे दिया।

1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए, कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

5 नवंबर 1925 को देशबंधू चित्तरंजन दास का कोलकाता में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की खबर मंडाले जेल में रेडियो पर सुनी। मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो जाने के बावजूद अंग्रेज़ सरकार ने रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे इलाज के लिए यूरोप चलें जाए। लेकिन सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यु हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू इलाज के लिए डलहौजी चले गए।

सुभाष बाबू को भारतीय राजनीतिक क्षितिज से तिरोहित करने की पराकाष्ठा यद्यपि जनवरी, १९३९ में उनके द्वारा डा. पट्टाभि सीतारमैय्या को पराजित करने की घटना से सम्बंधित है, क्योंकि उस समय महात्मा जी और उनके समर्थकों ने मार्च, १९३९ के कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष के रूप में सुभाष बाबू द्वारा प्रस्तुत छह मास में भारत को स्वाधीनता देने से संबंधित अन्तिमेत्थम्-प्रस्ताव न केवल ठुकरा दिया था, अपितु उसके साथ ही कांग्रेस कार्यसमिति का गठन करना भी असम्भव बना दिया था। 1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धति पसंद नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। हालांकि, गाँधीजी उनके इस विचार से सहमत नहीं थे।

1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ति अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष पर बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सीतारमैय्या को चुना। रविंद्रनाथ ठाकुर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने के कारण कई वर्षों बाद पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ।

3 मई 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए जनजागरण शुरू कर दिया। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। मजबूर होकर सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। मगर अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी कि सुभाषबाबू युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हें उनके ही घर में नजरबंद कर दिया।

उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए। आखिर, 29 मई 1942 को सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूचि नहीं थी। उन्होंने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होंने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ति से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।

पूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया। जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिनों पश्चात नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।

21 अक्तूबर 1943 को नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे़ हुए भारतीय युद्धबंदियोंको भर्ती किया। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतों के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।
पूर्व एशिया में नेताजी ने जगह-जगह भाषण करके वहाँ भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद करने का आह्वान किया। उन्होंने अपने आह्वान में संदेश दिया- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। नेताजी ने इन द्वीपों का नाम शहीद और स्वराज द्वीप रखा। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनो फौजो को पीछे हटना पड़ा। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा।

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होंने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के के बाद से ही उनका कुछ भी पता नहीं चला।

अवनीश सिंह। 22 जनवरी 2011

Friday, 18 February 2011

सरल हृदय गैरराजनीतिक व्यक्ति हैं, लेकिन देश के प्रमुख हैं

अवनीश सिंह
टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला और हाल ही में प्रकाश में आए एस बैंड विवाद को लेकर विवादों से घिरे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की मीडिया से मुलाकात कर जाहिर तौर पर यह स्वीकार किया है कि वह असहाय हैं और मजबूरियों के चलते निर्णय नहीं ले पाते। सिंह ने कहा है कि वह 'उतने' दोषी नहीं हैं, जितना बताया गया है।
देश की जनता को अपने प्रधानमंत्री की इस ईमानदारी और वास्तविक स्वीकारोक्ति की तारीफ करनी चाहिए। प्रधानमंत्री की बातों से यह तो स्पष्ट हो गया है हमारे देश के विद्वान प्रधानमंत्री कई अंतर्विरोधों के शिकार हैं। वह सरल ह्दय गैरराजनीतिक व्यक्ति हैं, लेकिन देश के राजप्रमुख हैं।
अब तो प्रधानमंत्री के बारे में यह अवधारणा बन चुकी है कि इस सरकार को कोई अदृश्य शक्ति चला रही है। वह संवैधानिक दृष्टि से संसद के प्रति जवाबदेह हैं, लेकिन वस्तुतः वह सोनिया गांधी के प्रति उत्तरदायी हैं। वह मंत्रिपरिषद के प्रधान हैं, लेकिन मंत्रिगण उनकी बात नहीं सुनते। वह स्वयं ईमानदार हैं, लेकिन सरकारी भ्रष्टाचार पर कोई कारवाई नहीं कर सकते। वह अंतरराष्टीय ख्याति के अर्थशास्त्री हैं, लेकिन महंगाई जैसी आर्थिक समस्या के सामने ही उन्होंने हथियार डाले हैं।
डॉ मनमोहन सिंह नाम मात्र के प्रधानमंत्री बन कर सारे भ्रष्टाचार को देखते हुए भी किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। भ्रष्टाचारियों को सह देना, अपराधियों को मंत्रिमंडल में शामिल कर उन्हें सुविधाएं देना क्या ये ईमानदारी है? अपराधों को देखते हुए भी कुछ न करने का साहस दिखाना भी एक अपराध है। अगर मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री की नहीं सुनी जाती तो वे क्यों उस पद पर बने हुए हैं। अगर वे भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कुछ नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें अपने पद से स्वेच्छा से त्याग पत्र दे देना चाहिए, जो देश हित के लिए उचित होगा।
गौरतलब है कि समूचा राष्‍ट्र प्रधानमंत्री की टीवी संपादकों के साथ चल रही बैठक से प्रधानमंत्री को अपनी बात को जनता की अदालत में रखने का मौका मिला है ता‍कि हर आदमी यह जान सके कि घोटोलों को लेकर सरकार करना क्‍या चाहती है।
सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि आजादी के इतने बरसों के बाद भी देश में लंबे समय तक शासन का अनुभव रखने वाली कांग्रेस सरकार को अभी तक यह समझ में नहीं आया है कि भ्रष्टाचार से कैसे निपटा जाए? भ्रष्टाचार ने सरकार की छवि को बट्टा लगाया है। भ्रष्टाचार के चलते अंतरराष्टीय स्तर पर देश की छवि भी धूमिल हुई है। यह तो स्पष्ट हो चुका है कि संप्रग सरकार घोटालों की प्रतीक बन गई है। आए दिन घोटाले की खबरें आ रही हैं। आजादी के बाद इतना कमजोर प्रधानमंत्री शायद किसी ने देखा हो, जिसका अपनी सरकार के काम-काज पर ही नियंत्रण नहीं है।
भ्रष्टाचार एक ऐसा अपराध है जो केवल सरकार में बैठे लोग ही करते हैं। इसलिए यह कहना बिल्कुल सही है कि सरकार के अंतर्गत रहते हुए कोई भी जांच एजेंसी सरकारी अफसरों या मंत्रियों की जांच स्वतंत्र और निष्पक्ष तौर पर नहीं कर सकती। यही कारण है कि आज तक एक भी घोटाले की जांच सिरे नहीं चढ़ी, जबकि 1948 से अब तक बड़े-बड़े घोटालों की संख्या दो सौ के आंकड़े की ओर तेजी से बढ़ रही है।
उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए वर्तमान सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से यह आशा करना कि वे सफ़ेदपोश बने उन भ्रष्टाचारी नेताओं, पूंजीपतियों, नौकरशाहों और माफ़ियाओं को सजा दिला पाएंगे जिन्होंने देश की संपत्ति को लूटा है, निश्चित रूप से मूर्खता होगी।
प्रधानमंत्री के जवाब से आप कितने संतुष्ट हैं? प्रधानमंत्री ने अपनी गलती तो मानी लेकिन इस्तीफे से इनकार किया? क्‍या वाकई प्रधानमंत्री गठबंधन के चलते इतने मजबूर हैं कि भ्रष्‍टाचार पर लगाम कसने में उन्‍हें दिक्‍कत आ रही है? जब पीएम ने गलती मान ली है तो वह अपनी जिम्मेदारी से कैसे बच सकते हैं? क्या गठबंधन धर्म निभाना देशहित से ऊपर है? इन सभी सवालों पर विचार करने की आवश्यकता है।

16-02-2011

कट्टरपंथियों के गले की फांस


अवनीश 
देश में शिया मुस्लिम समुदाय की सबसे बड़ी संस्था दारुल उलूम के नए कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तनवी को मोदी की सच्चाई बयां करना भारी पड़ रहा है। उनका बयान कट्टरपंथियों के गले की फांस बनता नजर आ रहा है। इस बात से मुसलमानों के धर्मगुरु व दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी खासे नाराज हैं। उन्होंने वस्तनवी से माफी मांगने को कहा है।
मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी अपना पदभार संभालने के साथ ही चर्चा में आ गए हैं। चर्चा में आने की अनेक वजह हैं। वस्तानवी दारुल उलूम के पहले मुखिया हैं, जो एमबीए किए हुए हैं। उन्होंने अपने स्थापित किए मदरसों में आधुनिक विज्ञान, इंजीनियरी और चिकित्सा जैसे विषय शामिल किए हैं। देवबंद के इतिहास में वे पहले गुजराती कुलपति हैं और गुजरात में मुस्लिमों की स्थिति पर उनकी टिप्पणी भी विवाद का विषय बनी है।
दारुल उलूम देवबंद के नए कुलपति (वीसी) मौलाना गुलाम मुहम्मद वस्तानवी का मानना है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाला गुजरात देश का विकास मॉडल बन गया है। सूबे में हर समुदाय के लोगों को बराबर मौका मिल रहा है। वस्तानवी ने यहाँ तक कहा कि अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर गुजरात ने काफी बदनामी झेली, लेकिन यहां हालात काफी जुदा हैं और मुसलमान समृद्ध व खुशहाल हैं।
वस्तनवी ने जिस बेबाकी से गुजरात और नरेन्द्र मोदी के बारे में अपनी राय ज़ाहिर की है उससे लगता है कि गुजरात को लेकर जिस तरह की राजनीति अभी तक होती रही है उस पर अब अंकुश लग ही जाना चाहिए। भारतीय मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति सुधरे, ऐसा कौन नहीं चाहता… लेकिन इसके लिए शरीयत की आड़ लेना, सिर्फ़ मन को बहलाने एवं धार्मिक भावनाओं से खेलना भर है। हर बात में “धर्म” को घुसेड़ने से अन्य धर्मों के लोगों के मन में इस्लाम के प्रति शंका आना स्वाभाविक है। अगर सच्चाई है तो उसे स्वीकार करना ही पड़ेगा। यही बात कत्त्र्पंथियों के दिमाग में गुश्ने का नाम ही नहीं ले रही है।
यहाँ एक बात तो स्पष्ट है मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तनवी ने खुले दिल और दिमाग़ से गुजरात में रहने वाले मुस्लिम समुदाय के अमन-चैन की बात कही है। गुजरात के मुस्लिम समुदाय नरेंद्र मोदी के साथ हैं लेकिन शासन और सत्ता के गुलाम चन्द लोग वोट की राजनीति में निरत हैं। अतीत के कफ़न में लिपटे लोगों को भविष्य से कोई लेना देना नहीं है। अस्तु, देश की समृद्धि चाहने वाले लोग नरेंद्र मोदी के साथ हैं, उन्हें शाही इमाम की मज़हबी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है।
मुझे नहीं लगता की वास्तनवी साहब ने कुछ ग़लत कहा है। अगर गुजरात के विकास मे मुसलमान भागीदार बन रहे है और उसका लाभ उन्हे मिल रहा है तो बुरा क्या है? किसी राज्य की तरक्की मे उस राज्य मे रह रहे सभी लोगों का योगदान होता है। अगर एसा नहीं होता तो उद्योगपती वहाँ उद्योग लगाने से पहले धर्म निरपेक्षता के चक्कर मे फँसता और उद्योग न लगता। किंतु ये क़ानून व्यस्था की स्थिति पर निर्भर करता है की उद्योगपती उद्योग लगाए या न लगाए जैसे की हमारे उत्तर प्रदेश का हाल है।
किंतु अफसोस इस बात का है कि गणतंत्र को चलाने और राजधर्म को निभाने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वे वोट बैंक से आगे की सोच नहीं पाते। वे देशद्रोह को भी जायज मानते हैं और उनके लिए अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी कुछ भी कहने और बकने को हर देशद्रोही आजाद है। हैदराबाद के लोकसभा सदस्य असदुद्दीन ओवैसी का इस सन्दर्भ में आया बयान कट्टरता की सच्चाई को उजागर करता है। उन्होंने सपष्ट शब्दों में कहा कि वस्तानवी शायद भूल गए हैं कि वो गुजरात के किसी मदरसे के प्रमुख नहीं बल्कि विश्व की सबसे बड़ी इस्लामी विश्वविद्यालय के प्रमुख हैं।” राष्ट्रीय स्तर पर भी मुस्लिम समुदाय की राजनीति में काफी दखल रखने वाले ओवैसी ने यहाँ तक कह दिया कि वस्तानवी का बयान उस अभियान का हिस्सा हो सकता है जो 2014 के चुनाव में मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर पेश करने के लिए चलाया जा रहा है।
आप को याद होगा इस्लामी कायदे कानूनों के बारे में लोगों संदेहों का निराकरण करने वाली संस्था दारुल उलूम देवबंद इस साल जीवन से जुड़े अलग-अलग फतवों को लेकर खासी चर्चा में रही। देवबंद ने जहां रक्तदान को हराम करार दे दिया, वहीं महिलाओं और पुरुषों के एक साथ काम करने को भी अवैध बताया। देवबंद ने अपने एक फतवे में कहा कि इस्लाम के मुताबिक सिर्फ पति को ही तलाक देने का अधिकार है और पत्नी अगर तलाक दे भी दे तो भी वह वैध नहीं है। इस्लाम में फतवे की बहुत मान्यता है। फतवा मुफ्ती से तब मांगा जाता है, जब कोई ऐसा मसला आ जाए जिसका हल कुरआन और हदीस की रोशनी में किया जाना हो। लेकिन पिछले कुछ सालों में ऐसा हुआ है कि फतवों की बाढ़ आ गयी है।
वही दूसरी ओर भारत का मुसलमान बदल रहा है। वह ज़्यादा विकास चाहता है, रोज़गार चाहता है। अब मुसलमान सानिया मिर्ज़ा की स्कर्ट को लेकर परेशान नहीं होता। बच्चों के लिए शिक्षा चाहता है, ताकि प्रतियोगिता के इस दौर में मुक़ाबला कर सके। उसकी डिमांड सेकुलर हो गई है, लेकिन अ़फसोस की बात यह है कि खुद को मुसलमानों का नेता और रहनुमा समझने वालों को ही इस बात की भनक नहीं है। ऐसे समय में वस्तानवी ही देवबंद के परंपरावाद को आधुनिकता से जोड़ कर उसकी छवि को और बेहतर बना सकते हैं। आधुनिक शिक्षा पर उनका जोर मुस्लिम नौजवानों को नए जमाने में दूसरे समुदायों के साथ आगे बढ़ने में मदद करेगा। उदार आधुनिकता का परंपरा से कोई अनिवार्य विरोध नहीं है, यह साबित करने में वे कामयाब होंगे, यह उम्मीद करनी चाहिए न कि आलोचना।

20 जनवरी 2011