Tuesday, 24 May 2011

क्या हो गया है प्रधानमंत्री को...


जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार आई थी तब वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने पूर्ववर्ती वाजपेयी सरकार का आभार व्यक्त किया था कि उन्हें विरासत में एक मजबूत अर्थव्यवस्था मिली है। यह कथन इतना बड़ा सच था कि सिर पर चढ़कर बोलता था। वरना कांग्रेस के मंत्री किसी दूसरे को श्रेय दें, ऐसा कम ही होता है। लेकिन यही सरकार अब सुरसा की तरह बढ़ती महंगाई और उसे रोकने की नाकामी अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को नाकारा साबित कर रही है। क्या हो गया है हमारे देश के उत्कृष्ट प्रधानमंत्री को! क्या वे किसी अदृश्य ताकत के हाथों की कठपुतली तो नहीं बन गए हैं... ऐसे असहज सवाल शंका के आधार पर लोगों के जेहन में कुलबुला रहे हैं और सरकार अपनी दूसरी पारी का दो वर्ष पूरे करने की ख़ुशी में इतरा रही है

वहीं दूसरी तरफ स्वच्छता का आवरण ओढ़े माननीय मनमोहन सिंह देश की जनता को अपनी साफ़-सुथरी पगड़ी (छवि) दिखाने में मशगूल हैं। लेकिन कहां-कहां सरकार बचेगी....लोग तो अब खुलकर कहने लगे हैं कि देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार सहित विपक्ष के कुछ नेताओं ने विदेशों में कालेधन जमा करा रखे हैं। ऐसी अवस्था में देश सच्चाई जानना चाहेगा। भ्रष्टाचार के शिष्टाचार में लाचार सत्ता की कमान संभाल रहे ये लोग लोकप्रतिनिधि हैं, वे जनता के प्रति जिम्मेदार हैं। फिर जनता को अंधकार में क्यों रखा जा रहा है... क्यों कभी अन्ना हजारे को तो कभी बाबा रामदेव को अनशन और आन्दोलन करने पड़ रहे हैं। पूरा तंत्र सिर्फ आम आदमी की कीमत पर अपनी जेब भरने में लगा है। फिर चाहे वो कांग्रेस की प्रयोगशाला के भ्रष्टाचार रूपी परखनली से निकले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे अशोक चव्हाण हों या फिर सुरेश कलमाडी। ए राजा हो या करुणानिधि की बेटी कनिमोड़ी।

भारत में जैसे जैसे भ्रष्टाचार का मुद्दा गर्माता जा रहा है, राजनेताओं की छिछालेदार सामने आ रही है, आश्चर्य तो तब होता है जब भारत की राजनीति के प्रेम चोपड़ा कांग्रेस महामंत्री दिग्विजय सिंह हर उस व्यक्ति के कपडे उतारने लग जाते हैं, जो भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपनी आवाज उठाता है और पूरी कांग्रेस पार्टी में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो उनसे कहे कि वे अपना अर्नगल प्रलाप बंद करें। तो क्या यह नहीं माना जाना चाहिये कि दिग्विजय सिंह 10 जनपथ के इशारे पर ये सब हरकतें कर रहे हैं। समझ में नहीं आता कि वे किसके सामने अपनी निष्ठां दिखाना चाहते हैं। सोनिया गाँधी के प्रति या भारत के प्रति।

सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि आजादी के इतने बरसों के बाद भी देश में लंबे समय तक शासन का अनुभव रखने वाली कांग्रेस सरकार को अभी तक यह समझ में नहीं आया है कि भ्रष्टाचार से कैसे निपटा जाए। कॉमनवेल्थ घोटाला, आदर्श घोटाला, टेलीकॉम घोटाला और स्पैक्ट्रम घोटाला... एक के बाद एक महाघोटाले ने सरकार के सामने संकट खड़ा कर दिया है। वो तो भला हो इस देश की न्यायपालिका का जिसने थोड़ी ईमानदारी का परिचय देते हुए बेईमान कलमाड़ी और राजा-रानी (ए. राजा, कोनीमोझी) जैसे देश के दलालों को सलाखों के पीछे पहुंचाकर स्थिति को थोडा संभाल लिया। इन मामलों में केंद्र सरकार को न तो कोई रास्ता सूझ रहा है और न ही कड़े फैसले करने की हिम्मत दिख रही है। ये अलग बात है की सरकार न्यायालय की इस करवाई का श्रेय अपने ऊपर लेकर अपनी पीठ अपने ही हाथ ठोंक ले।

कहने को तो केंद्र में कांग्रेसनीत त्रिगुट (सोनिया, राहुल और मनमोहन) सरकार ने अपनी दूसरी पारी के दो वर्ष पूरे कर लिए हैं लेकिन इन दो वर्षों में इन्होंने देश की लाचार जनता की भावनावों के साथ किस प्रकार बलात्कार किया यह बात किसी से छुपी नहीं है। मंहगाई के कारण पस्त जनता के ह्रदय से निकली अंतर्वेदना से भी इन सत्ताशीन नेताओं का ह्रदय द्रवित नहीं हुआ, और अपनी नाकामी को छिपाने के लिए ये नेता दिल्ली में गठबंधन धर्म की दुहाई देते हुए जश्न मना रहे हैं। अच्छा तो यह होता कि विश्व  के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले राजनेता भ्रष्टाचार पर देश भर में चल रही बहस को देखते हुए इस मुद्दे पर संसद में बात करते, और जनता को यह विश्वास  दिलाते कि भारत के राजनीतिक दल भी भ्रष्टाचार को जड़मूल से समाप्त करने के लिए कृतसंकल्पित हैं।

आज जनता जब महंगाई, भ्रष्टाचार, लूट खसोट के सारे इतिहास पलट कर देखती हैं तो अपने आप को सबसे ज्यादा लुटा हुआ इसी सरकार के कार्यकाल में पाती हैं। दान में मिली सत्ता से मनमोहन सिंह जी को अगर जरा भी अपनी साख बचानी हैं तो इस्तीफ़ा दे देना चाहिए... वर्ना इतिहास कहेगा की "इस देश में एक ऐसा प्रधानमंत्री था जिसे एक महिला ने कठपुतली की तरह नचाया....." अब तो प्रधानमंत्री के बारे में यह अवधारणा बन चुकी है कि इस सरकार को कोई अदृश्य शक्ति चला रही है। वह संवैधानिक दृष्टि से संसद के प्रति जवाबदेह हैं, लेकिन वस्तुतः वह सोनिया गांधी के प्रति उत्तरदायी हैं। आजादी के बाद इतना कमजोर प्रधानमंत्री शायद किसी ने देखा हो, जिसका अपनी सरकार के काम-काज पर ही नियंत्रण नहीं है। यह भी तय है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले समय में माननीय मनमोहन सिंह सबसे भ्रष्ट सरकार के अगुआ के ख़िताब से नवाज़े जायेंगे।
आप इस संदिग्ध सच्चाई को स्वीकरिए या धिक्कारिए...लेकिन नकार नहीं सकते।

अवनीश सिंह                                                20 may 2011
9555736564

Saturday, 21 May 2011

भारतीय राजनीति के विचित्र चरित्र


भारतीय राजनीति के तीन किरदार मुझे भुलाये नहीं भूलते, या यूँ कहिये मैं उन्हें भुलाना नहीं चाहता। इनमें पहला नाम राजद सुप्रीमो लालू का आता है...जो एक दशक पहले अपनी बेबाक बयानबाज़ी के लिए मिडिया से लेकर आमजन तक काफी चर्चा में रहते थे। सुनने में आ रहा है की आजकल उनके राजनीतिक तबेले में रावडी देवी के अलावां कोई नहीं बचा है। इस बीच राजनीति में पुनर्वापसी को लेकर लालू ने जय-बीरू के अंदाज़ में पासवान के साथ शोले का रीमेक भी बनाने की कोशिश की जो बुरी फ्लाप हो गयी। दोनों नेताओं ने कहा था कि बिहार में लालू पासवान की आंधी बहने लगी है मगर नीतीश-मोदी के तूफान में वे दोनों ऐसे पटकाय गये कि अब मुंह लटकायें अपने-अपने घरों में बंद हैं।

इस क्रम में दूसरे नंबर पर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय का नाम है। जो इटलीपरस्त महारानी के प्रति अपनी वफादारी का सबूत देने के लिए तलवे चाटते हुए कुत्तों को भी शर्मसार कर रहें हैं। महोदय की बेबाकी और खोजी खुलासों ने विक्किलिक्स के संथापक जुलियन अन्साज़े को भी पीछे छोड़ दिया है। आजकल अपनी बयानबाज़ी के कारण इन्हें दिग्गिलिक्स के भी नाम से जाना जा रहा है। हिंदुत्व को गरियाना हो या भाजपा को लतियाना हो दोनों काम आजकल कांग्रेस ने इन्हीं के मजबूत कन्धों पर सौंपा है। इनकी धर्मनिरपेक्ष छवि ऐसी है कि बटाला हॉउस इनकाउन्टर से लेकर ओसामा के मरने तक इनकी दरियादिली मिशाल बन चुकी है। वैसे दिग्विजय के संदर्भ में इस बात की भी खूब चर्चा चलती है कि मुस्लिम मतों को बटोरने के लिए सोनिया गांधी ने उनको मुक्त-हस्त कर दिया है। हो सकता है कि इन्हें अपनी मुस्लिमपरस्ती के कारण भविष्य में लाहौर से सांसद बनने का आफर भी मिल जाये। 

तीसरे नंबर पर हमारे पडोसी और हालत के मारे अमर सिंह हैं। सड़क छाप शायरी और अमर प्रोडक्शन की सीडियों से इन्होंने मिडिया में बहुत नाम कमाया है। समाजवादी पार्टी से लतियाकर निकले गए अमर बाबू हमेशा किसी न किसी प्रसंगवश चर्चा में बने रहते हैं। यहाँ तक की वो खुद अपने उपर दलाल का ठप्पा लगवाना पसंद करते हैं। राजनीति से लेकर कार्पोरेट तक सोनिया से लेकर सिने जगत की महान हस्तियों के लिए इन्होंने लम्बे समय तक दलाली का काम बड़ी ही ईमानदारी से निभाया है। इसी महानुभाव ने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के सिविल सर्वेंट भूषण परिवार की सीडी लांच कर अन्ना हजारे की मुहिम की हवा निकला, जिसके लिए देश की जनता इनकी आभारी है। अपनी करतूतों की वज़ह से अमर सिंह लोकतंत्र मे गंदगी फैलाने वाले इतिहास के पन्नो मे "अमर" पात्र के रूप मे मौज़ूद रहेंगे, यह तो निशित रूप से तय है।

अब होनी को कौन टाल सकता है। बेचारे अमर बाबू आजकल अपने टेप को लेकर चर्चा में बने हैं। वैसे, एक तरह से अमर सिंह इस तरह की सिचुएशन पसंद भी करते हैं, जहां कुछ विवाद हो और बयानबाजी जम कर हो। इस विवादास्पद टेप में अमर सिंह और बिपाशा नाम की एक महिला से बातचीत का रिकॉर्ड है। लोग यह मान रहे हैं यह आवाज 9 साल की दोस्ती के बाद जॉन अब्राहम से अलग हुई 32 साल की बॉलिवुड ऐक्ट्रेस बिपाशा बसु की है।

वहीं, अमर सिंह कह रहे हैं, जहां तक सफाई देने की बात है, वह मैं अपनी बीवी के अलावा और किसी को सफाई नहीं दूंगा। कहने को तो अमर सिंह सांसद है लेकिन इस मामले में जबाब सिर्फ पत्नी को देंगे...जनता गयी तेल लेने। अमर सिंह कि पत्नी इस दलाल की बीबी होने के गम में पहले ही रोती थी, अब तो सौतन बिपासा भी आ गई। सच कहा जाये तो अमर सिंह जैसा होनहार दलाल सौ सदी में एक बार पैदा होता है। अमर सिंह यह तो मानते हैं कि टेप में जो मेल-वॉयस है, वह उन्हीं की है, जब आवाज़ उनकी है तो जाहिर है दोनों टांगों के बीच के दर्द की कशिश भी उन्हीं की होगी। पर उनका कहना है कि मैं कोई साधु नहीं हूं, पर शैतान भी नहीं हूं, जैसा कि मुझे पेश किया जा रहा है। ये तो पता नही की आप संत है या शैतान लेकिन दलाल ज़रूर है।
यदि इन नेताओं का यही रवैया रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनता उनको एक स्वर से मानसिक दिवालिया घोषित कर देगी।

अवनीश सिंह 

Saturday, 14 May 2011

लाल किला दरक गया, भ्रष्टाचार की सत्ता सरक गई

बदलाव की बयार में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी की सत्ता बदल गई है। केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट का लाल किला दरक गया, तो तमिलनाडु और पुडुचेरी में डीएमके-कांग्रेस की सत्ता सरक गई। असम ही एक ऐसा सूबा रहा जो बदलाव की बयार में अछूता रह गया। पांच राज्यों की विधान सभा के रिजल्ट से यह साफ हो गया है कि भारतीय मतदाता भ्रष्टाचार को अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता। मतदाताओं ने यह साफ तौर पर यह संदेश भी दिया है कि अगर वोट पाना है तो काम करना पड़ेगा।

तमिलनाडु के नतीजे यह बताने के लिए काफी हैं कि मतदाता भ्रष्टाचार को अब और सहने के मूड में कतई नहीं हैं। डीएमके के कई नेता पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। यहां तक कि भ्रष्टाचार के छींटे करुणा के घर तक पहुंच गए और बेटी कनिमोझी पर गिरफ्तारी का खतरा मंडरा रहा है। पार्टी के बड़े नेता और पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जेल में हैं। इन सब कारणों से भ्रष्टाचार चुनाव का अहम मुद्दा बन गया और करुणानिधि के नेतृत्व वाली डीएमके की बहुत किरकिरी हुई। अगर डीएमके की जीत हो जाती, तो यूपीए को यह कहने का मौका मिल जाता कि जनता की नजर में वह बेदाग है। जनता ने यह मौका उससे छीन लिया। मतदाताओं ने इसकी सजा करुणानिधि सरकार को दी और इस बार के चुनाव में जयललिता की पार्टी को शानदार बहुमत मिला।

पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव परिणामों ने साफ़ कर दिया कि अब वामपंथी विचारधारा का जमाना बीत गया। जनता ने सबके लिए एक अजेंडा तय कर दिया है: काम करो। वोट उसे मिलता है जो काम करता है या जिससे काम करने की उम्मीद की जा सकती है। इन चुनावों का यही सबसे बड़ा सबक है। बंगाल ने लेफ्ट को 34 साल तक आजमा कर देख लिया। अब उसे तरक्की चाहिए, जिसका वादा ममता बनर्जी कर रही हैं। पश्चिम बंगाल में 1977 के बाद पहली बार वाम मोर्चा को विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा। ममता की आंधी में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। 294 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनाव में तृणमूल- कांग्रेस गठबंधन ने सत्ताधारी लेफ्ट फ्रंट को करारा झटका देते हुए दो-तिहाई बहुमत हासिल किया।

बंगाल में लेफ्ट ने बरसों तक बदलाव की हवा को रोके रखा। उसने राज्य के हर कोने में ऐसा जाल फैला दिया, जिसे उधेड़ना मुश्किल था। राज्य की युवा पीढ़ी अपने लिए एक खुली जगह की तलाश कर रही थी। बसु के बाद वहां सीपीएम की नीतियों को बदलने की बात सोचने वाले बुद्धदेव भट्टाचार्य की रफ्तार इतनी धीमी थी कि बदलाव की आकांक्षा का दबाव पार्टी झेल नहीं पाई। इसके ठीक उलट, ममता का अपने बूते पर खड़ा होना और इस पुराने निजाम को चुनौती देना युवाओं को आकर्षित करने वाला साबित हुआ। इसके बाद सिंगूर और नंदीग्राम ने आग में घी का काम किया। ममता ने भूमि अधिग्रहण को लेकर लोगों की नाराजगी को समझा और वह गांववालों व किसानों की आवाज बनकर उभरी। तृणमूल कांग्रेस ने इन मौकों का भरपूर फायदा उठाया और खासकर ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत की।

कुल मिलाकर इतना कहा जा सकता है कि तमिलनाडु में जहां इन चुनावों में भ्रष्टाचार सबसे बढ़ा मुद्दा था और यूपीए जिस तरह जयललिता की आंधी में उड़ गया है, उससे ममता बनर्जी के कंधों पर सवार होकर बंगाल का किला जीत लेने की उसकी सफलता की चमक जरूर मद्धिम पड़ गयी है। वहीं दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल में लाल किलाढह जाने और केरल में कांटे की टक्कर के बावजूद सत्ता गंवा देने के बाद लेफ्ट फ्रंट, खासकर उसकी अगुआ पार्टी सीपीएम को अब राष्ट्रीय राजनीति में अपने वजूद के सवालों से रू-ब-रू होना पड़ेगा। पहली बार लेफ्ट इतना बेदम हुआ है कि बंगाल और केरल दोनों जगह से उखड़कर त्रिपुरा में जा सिमटा है। हाल के बरसों में लेफ्ट तीसरे मोर्चे के नाम पर कांग्रेस और बीजेपी को डराता आया है। उसका वह हथियार अब कमजोर हो जाएगा। देश की राजनीति में अलग समीकरण बनेंगे।

केरल में कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ को मामूली बहुमत मिला। वैसे, तो केरल में हर बार सत्ता परिवर्तन होता है लेकिन इस बार सीपीएम के नेताओं ने अपनी हार की कहानी खुद लिखी। मुख्यमंत्री वी. एस. अच्युतानंदन और केरल से पार्टी के बड़े नेता व पोलित ब्यूरो के सदस्य विजयन आपस में ही लड़ते रहे। पार्टी में कलह का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि अच्युतानंदन का नाम प्रत्याशियों की लिस्ट में शामिल ही नहीं था। बाद में जब उनके समर्थकों ने हंगामा किया, तो उन्हों उम्मीदवार बनाया गया। इसके अलावा पार्टी के कुछ नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे।

असम में तरुण गोगोई से अमन-चैन की उम्मीद है, इसलिए असम में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई है। राज्य के 76 वर्षीय मुख्यमंत्री तरुण गोगोई तीसरी बार सत्ता संभालने की तैयारी में हैं। जनता को काम करने वाले लोगों पर भरोसा है, इसीलिए राज्यों में नेताओं का निजी करिश्मा चल निकला है। गुजरात में मोदी और बिहार में नीतीश पहले ही इस बदलाव की नुमाइंदगी कर चुके हैं।

पुड्डुचेरी में पूर्व मुख्यमंत्री एन. रंगासामी के नेतृत्ववाले ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस (आआईएनआरसी) एवं ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) गठबंधन ने दो तिहाई बहुमत हासिल किया है। यहां कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन को नुकसान उठाना पड़ा है। ज्ञात हो कि पूर्व मुख्यमंत्री एन. रंगासामी ने दो महीने पहले कांग्रेस से अलग होकर फरवरी में ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस नाम से पार्टी बनाकर विधानसभा चुनाव में जबर्दस्त जीत हासिल की है। उनकी इस कामयाबी ने कांग्रेस के तीसरी बार सत्ता में काबिज होने के मंसूबों पर पानी फेर दिया है

इन चुनाव परिणामों पर विचार करते समय हमें आंध्र प्रदेश और कर्नाटक हुए उपचुनाव परिणामों को नहीं भूलना चाहिए, जहां कांग्रेस को करारी मात मिली है। कर्नाटक के उपचुनावों में जहां भाजपा ने जीत दर्ज करके अपनी दमदार उपस्थिति का अहसास कराया तो पूर्व मुख्यमंत्री और स्वर्गीय वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगनमोहन ने कडप्पा में जीत दर्ज करके कांग्रेस के लिए नई चुनौतियों का संकेत दिया है। दक्षिण के राज्य में भाजपा की उपस्थिति कांग्रेस के लिए चिंता का सबब बन सकती है तो आंध्र प्रदेश में जगनमोहन का जादू नया समीकरण खड़ा कर सकता है। 

Saturday, 7 May 2011

अंत वस्त्रों और चप्पलों पर हिन्दू देवी देवताओं की तस्वीर

कुछ दिन पहले भारत जैसे धर्मनिपेक्ष देश में चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हिन्दू देवी देवताओं की नग्न तस्वीरें बनाकर अपनी लोकप्रियता में चार चाँद लगाया था। उसके कुछ ही दिन बाद एक विदेशी वेश्या काली का रूप धरकर मर्दों से आलिंगन करती हुई अपने आपको सबसे अलग दिखाने की कोशिश में मशहूर हो गयी।

पिछले दिनों ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में हुए एक फैशन शो में लिसा ब्लू नामक फैशन डिज़ाईनर द्वारा खुल कर हिन्दू देवी-देवताओं के अपमान का मामला सामने आया है। इस फैशन शो में डिजाइनर लीजा ब्लू ने जो कलेक्शन पेश किया उसमें हिंदू देवी-देवताओं के चित्रों को अश्लील तरीके से इस्तेमाल किया गया। फैशन शो में एक मॉडल के अंत वस्त्रों पर और जूते चप्पलों पर हिन्दू देवी देवताओं की तस्वीरों का प्रदर्शन किया गया, और हमेशा की तरह धर्मनिरपेक्षता के चलते दुनिया के एक मात्र हिन्दू बहुसंख्यक देश भारत की नपुंसक सरकार ने इस मामले में रूचि लेना तो दूर की बात अंतरराष्ट्रीय समाज में इस कुकृत्य के लिए कोई विरोध दर्ज कराना भी उचित नहीं समझा

ऐसी हास्यास्पद घटनाओं की जितनी निंदा की जाए, कम है। बार बार हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान हो रहा है। यह इस देश की विडंबना है अगर ऐसी घटना किसी अन्य समुदाय के साथ हो तो सरकार तुरंत हरकत में आ जाती है। यह घृणात्मक कृत्य इस बात का द्योतक है कि पश्चिमी समाज कितना असभ्य, आशालीन और शैतानियत का नेतृत्व करने वाला समाज है। हिन्दुओ में जागरूकता, विवेक, हौंसले तथा संगठन की कमी है जिस कारण यदा-कदा कोई न कोई घटना देश या फिर विदेश में घटती ही रहती है। मुसलमानो का गुस्सा इस असभ्य समाज के प्रति कितना सही है वास्तव मे अब कुछ लोगों को समझ मे आ रहा होगा। डेनमार्क में एक कार्टून बनता है और पूरे विश्व का मुसलमान सड़कों पर उतर जाता है।

हालांकि, विदेशों में इस तरह की हरकत का यह कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी सस्ती लोकप्रियता और विवादों में बने रहने के लिए और भी कई हस्तियों ने देवी-देवताओं के चित्रों को मोहरा बनाया। कभी जूते-चप्पल पर, तो कभी टॉयलेट शीट पर देवी-देवताओं की तस्वीरें बनाई जा चुकी हैं। पिछले साल ही एक नामी मल्टिनैशनल कंपनी ने भगवानों की तस्वीरों वाले जूते बाजार में उतारे थे। एक नामी फैशन डिजाइनर ने तो सारी हदें ही पार कर स्विमवेयर पर देवी-देवताओं की तस्वीरें बनाई थीं, उसका भी जमकर विरोध हुआ था और उसे अपनी ड्रेस वापस लेनी पड़ी थीं। ये मानसिक रुप से कितने दिवालिए हो सकते हैं, यह इन तस्वीरों को देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है।

धार्मिक मान बिंदु आस्था के प्रतीक होते हैं और हर समुदाय के अपने धार्मिक मान बिंदुओं के सम्मान की रक्षा का पूर्ण अधिकार है। बात-बात पर हिन्दुओं के विरुद्ध बोलने-लिखने वाले "सैकुलर" अब इन प्रश्नों का क्या जवाब देंगे। आज देश की राजनीति को अपने घर की बपौती समझने वाले, धर्मनिरपेक्ष शब्द का भी कहाँ पालन कर रहें हैं। यहाँ तो तुष्टिकरण का खेल चल रहा है, भारत के हित में सोंचने वालों को सांप्रदायिक करार दिया जाता है तथा संस्कृति का गला घोंटने वाले धर्मनिरपेक्ष कहलाते हैं। सेक्युलारिस्म की आड़ में आम इंसान को रौंदा जा रहा हैं। यह तुष्टीकरण की नीति एक बडी बीमारी है! इससे तथाकथित "अल्पसंख्यकों" के वोट खीचे जा सकते हैं लेकिन भारत का भला नहीं हो सकता। रही बात हिंदुत्व वाद की तो आज हिन्दुओ में दम ही नहीं है... उनके लिए एक जॉब, एक सुन्दर पत्नी और थोडा सा बैंक में मनी ही बहुत कुछ हैं। इसके विपरीत में गैर हिन्दूओं का स्लोगन हैं चाहे पंचर जोड़ेगे पर भारत को तोडे़गे। यह स्लोगन मैंने एक पत्रिका में पढ़े थे वाकई आज सही साबित हो रहा है।

आज तथाकथित धर्म निरपेक्षतावादियों के द्वारा जिस तरह से हमारी शाश्वत संस्कृत को धूमिल और मिटने के कुत्सित षड्यंत्र रचे जा रहे हैं वह निंदनीय और भत्सर्नीय नहीं अपितु दण्डनीय है। इस तरह के दुष्प्रचारकों को कड़ा से कड़ा दण्ड दिया जाना चाहिए। अब वक्त आ गया है कि इन कुकृत्यों का मुंह तोड जवाब दिया जाना चाहिए ...और भारत सरकार को भी अब अपनी किन्नरी आदत को छोडकर बाहर आना चाहिए











अवनीश सिंह

Tuesday, 3 May 2011

अमेरिकियों में बदला लेने की भावना तो है


कल दिनभर समाचार चैनलों पर एक खबर चल रही थी। अमेरिका ने पाकिस्तान के ऐबटाबाद शहर में घुसकर ओसामा बिन लादेन को मार गिराया। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के 10 साल बाद अमेरिका ने अपना बदला लिया। यह अमेरिकी सरकार और उसकी जनता की बड़ी जीत के रूप में देखा जा रहा है। इसके पीछे कारण जो भी हो लेकिन इस बात की सराहना और तारीफ तो करनी ही चाहिए कि अमेरिकियों में बदला लेने की भावना तो है ही।
इसके विपरीत भारत में धर्मनिरपेक्ष बनने की होड़ में देश की दशा-दिशा तय करने वाले तथाकथित बुद्धजीवी और हमारे नेताओं की सोंच सहिष्णु है, इनमें गांधीवादी विषाणु इस कदर घुसे हैं कि बदला लेने की भावना तो दूर अगर इनके एक गाल पर तमाचा लगे तो ये झुकर अपना पिछवाड़ा भी खोलने को तत्पर रहते हैं, उस पर अगर केंद्र में बिना रीढ़ की इटलीपरस्त सरकार हो तो क्या कहा जा सकता है।
आज समाज के नीति निर्णायक तत्व जिसका मुख्य पेशा केवल जनता के धन को लूट कर विदेशी बैंकों में जमा करना है, उनसे विकास और आत्मरक्षा के माडल पर बात करना बेमानी है। जिस देश में देशद्रोहियों को दामाद बनाकर रखा जाता हो भला उस देश से कौन डरने वाला है। आज हमारे ही टुकड़ों पर पलने वाला पाकिस्तान हमें ललकारता रहता है और पड़ोस मे बैठा चीन धमकाता रहता है। लेकिन सरकार अपनी स्वच्छ छवि के चक्कर में देश की जनता के भावनावों के साथ बलात्कार करने में लगी हुयी है। न तो इस देश के नेताओं में रत्तीभर स्वाभिमान बचा है और न ही देशप्रेम।
भारतीय राजनीति को अपने बाप की बपौती समझने वाले नेता और मंत्री, अम्मा, अप्पा, बहन और बहनोई को टेलिकॉम का लाइसेँसे देने के लिए अरबों रुपये लूटने में लगे हैं। कृषि मंत्री प्याज, चीनी, गेहूँ के दाम बढवाने, क्रिकेट खेलवाने, और बलवा के साथ के साथ घूमने में लगा है तो कोई आदर्शवादिता का परिचय देते हुए अपने रिश्तेदारों को फ़्लैट आवंटित करने में लगा है।
ये भारतवासी भी अजीब लोग हैं। पहले तो एक नपुंसक को प्रधानमंत्री बनाते हैं और फिर उससे बड़ी बड़ी उम्मीद पालने लगते हैं। अभी-अभी दिग्विजय का बयान नही देखा... देखिए कितने बेकरार है हमारे उदार, मानसिंह की पीढ़ी के वारिस जनाब दिग्विजय, लादेन का शाही अंतिम संस्कार करने के लिए। इनका बस चलता तो ये समुद्र में गोता लगाकर लादेन की लाश ढूंढ़ निकलते और विधिवत अंतिम संस्कार कर धर्म निरपेक्ष होने का अंतर्राष्ट्रीय पदक अपनी झोली में झटक लेते।
वो तो लादेन की बदकिस्मती थी जो वो पाकिस्तान मे जा छिपा और मारा गया, कहीं वो भारत आ गया होता तो किसकी मजाल थी जो भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश और कांग्रेस जैसी शर्मनिरपेक्ष सरकार के रहते आँख उठाने की भी हिम्मत करे। उसकी मुकदमे की फाइल/सज़ा की फाइल होम मिनिस्टीरी से दिल्ली सरकार और दिल्ली सरकार से राष्ट्रपति भवन और वहां से पी. एम. ओ. ऑफीस और वहां से वापस फिर से दिल्ली सरकार......के बीच इतना घूमती की लादेन की तो छोड़ो उसकी अनेकों पीढ़िया अपना भरपूर जीवन यापन कर भारत की धर्मनिरपेक्षता को मजबूती प्रदान करती। आख़िर होना भी चाहिए ऐसा हम एक धर्मनिरपेक्ष और उदार देश के नागरिक जो ठहरे, जिसे गांधीवादी सहनशीलता और अहिंसा रूपी कायरता की कुछ ज़यादा ही खुराक दी गयी है।
अवनीश सिंह