अवनीश सिंह
हिन्दी पत्रकारिता के
स्वतंत्रेत्तर युग को देखा जाए तो इसने छ: दशक से अधिक की अपनी यात्रा
पूरी कर ली है। इस दौरान पत्रकारिता में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले लेकिन पिछले
दस वर्षों में हिन्दी के समाचार पत्र पहले जैसे नहीं रहे। पत्र औऱ पाठक दोनों ने
ग्लोवलाइजेशन का मजा चखा। प्रसारण माध्यमों में हुई तब्दीली साफ दिखी। पिछले दशक
में जन्में टेलीवीजन चैनलों की गिनती उगली पर करना असंभव है। माना जा रहा है कि नये
समाचार माध्यमों के बढ़ने से मीडिया में भाषा को लेकर नयी-नयी चुनौतियां सामने आ
रही हैं। ऐसे में हिन्दी भाषा के अस्तित्व पर म़डरा रहे संकट से किस प्रकार उबरा
जाए यह एक विचारणीय प्रश्न बनता जा रहा है। समाचार माध्यमों की भाषा किस तरह की हो
यह लंबे समय से बहस का मुद्दा बना हुआ है। हिन्दी को लेकर सोचने वाले तरह-तरह के
सवाल उठाते हैं, जैसे कि क्या ये हिन्दी के लिए संकट की सूचना है, क्या हिन्दी
संक्रमण के काल से गुजर रही है, क्या हिन्दी इन परिवर्तनों और प्रयोगों के बीच
जीवित रह पाएगी?
पत्रकारिता का
साहित्यिक स्वरूप
साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक अटूट
रिश्ता रहा है। एक जमाना वह था जब इन दोनों को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था।
ज्यादातर पत्रकार साहित्यकार थे और ज्यादातर साहित्यकार पत्रकार। पत्रकारिता में
प्रवेश की पहली शर्त ही यह हुआ करती थी कि उसकी देहरी में कदम रखने वाले व्यक्ति
का रुझान साहित्य की ओर हो,
लेकिन पिछले दो दशकों से इस रिश्ते में एक दरार आ गई है जो
लगातार चौड़ी हो रही है। इसलिए आज की पत्रकारिता पर यह आरोप लग रहा है कि वह
साहित्य की उपेक्षा कर रही है।
आजादी से पहले हिंदी पत्रकारिता के तीन
चेहरे थे। पहला चेहरा था-आजादी की लड़ाई को समर्पित पत्रकारिता, दूसरा चेहरा था साहित्यिक उत्थान को समर्पित पत्रकारिता का और तीसरा चेहरा
समाज सुधार करने वाली पत्रकारिता का था। कहना न होगा कि इन तीनों को आजादी का
महाभाव जोड़ता था। इसलिए साहित्यिक पत्रकारिता भी यदि राजनीतिक विचारों से ओत-प्रोत थी तो राजनीतिक पत्रकारिता
में भी साहित्य की अंत: सलिला बहा करती थी।
पत्रकारिता में नये प्रयोग
समाचार माध्यमों में हिन्दी
के साथ जिस तरह से आये दिन नये-नये प्रयोग किए जा रहे हैं उससे तो यही लगता है कि
अब हमारी हिन्दी दूसरी भाषाओं की गोंद में जा बैठी है। सड़क से लेकर संसद तक के लोगों
को ध्यान में रखकर काम कर रही मीडिया इन चुनौतियों से कैसे निपटे यह एक विचारणीय
प्रश्न है। हिन्दी प्रसारण की भाषा संस्कृत के नजदीक हो या उर्दू के या फिर उसका
रोमांस अंग्रेजी के साथ हो। वहीं दूसरी तरफ मीडिया की चिंता यह भी है कि श्रोताओं
और दर्शकों की मन:स्थिति को जाने-समझे बिना किस तरह प्रसारण या प्रकाशन करे।
इन सबके बीच यह भी विषय सामने आता है कि क्या हिन्दी इतनी सक्षम है कि भारतीय समाज
इसे फलते-फूलते देखना चाहता है, अगर चाहता भी है तो क्या शहरों की अंग्रेजी परस्त
शासन व्यवस्था इसे पनपने देगी।
औद्योगिक दौर में
पत्रकारिता
पत्रकारिता पर
यह भी आरोप है कि उसका स्वरूप पहले की तरह स्पष्ट नहीं रह गया है। उसके मकसद को
लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं। उसमें अनेक स्तरों पर बिखराव दिख रहा है तो कई
स्तरों पर अराजकता भी लक्षित हो रही है। सवाल उत्पन्न होता है कि ये आरोप कहां तक
सही हैं और यदि पत्रकारिता के पास उनका कोई जवाब है तो वह क्या है? इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि हाल के वर्षों में मीडिया का अभूतपूर्व
विस्तार हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रीय एजेंडा निर्धारित करने में आज
मीडिया की भूमिका कहीं बढ़ गई है। आज वह केवल एक मिशन नहीं रह गया है, वह एक बड़े प्रोफेशन,
बल्कि उद्योग में तब्दील हो चुका है। मीडिया रपटों की माने
तो वर्तमान में 10.3 अरब डॉलर का यह उद्योग 2015 में वह 25 अरब डालर यानी सवा लाख
करोड़ से अधिक का हो जाएगा। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 600 से अधिक टीवी चैनल,
10 करोड़ पे-चैनल देखने वाले परिवार, 70,000 अखबार हैं। यहां हर साल ।,000 से अधिक फिल्में बनती हैं। जाहिर है, इतने बड़े क्षेत्र को संभालना इतना आसान नहीं रह गया है। दुर्भाग्य यह है कि
इसके लिए कोई सुविचारित नीति भी नहीं है।
अवनीश सिंह
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