Sunday, 21 October 2012

सेक्स और सियासत का कॉकटेल


राजनीति को सत्ता, सुंदरी व सियासत का खेल कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इसका ताजा उदाहरण अगस्त महीने के पहले  सप्ताह में लगातार दो मर्डर मिस्ट्री, जिसने सियासी गलियारों में सनसनी पैदा कर दी है। देखा जाये तो यह दोनों मामले हरियाणा से जुड़े हैं और दोनों के केन्द्र बिन्दु में कांग्रेस के बड़े नेताओं के नाम शामिल हैं। कुछ महीनें पहले राजस्थान में घटित भवरी देवी हत्याकांड के छीटों के दाग कांग्रेस के दामन से धुले भी नहीं थे कि हरियाणा सरकार के मंत्री गोपाल कांडा ने फिर से पार्टी का दामन को दागदार कर दिया।
गौरतलब है कि जब-जब सेक्स और सियासत का कॉकटेल हुआ है, तब-तब हंगामा बरपा है। किसी न किसी महिला ने अपनी जान गंवाई है। एक नेता से प्यार करने का ऐसा अंजाम होगा शायद किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। अभी दो दिन पहले एमडीएलआर एयरलाइंस की पूर्व महानिदेशक गीतिका शर्मा की अशोक बिहार स्थित अपने ही घर में आत्महत्या का मामला सामने आया। इस मामले में गीतिका ने अपने सुसाइट नोट में हरियाणा सरकार के गृह राज्य एवं स्थानीय निकाय मंत्री गोपाल कांडा को मौत का जिम्मेदार बताया है। इस घटना की जांच अभी चल ही रही थी कि हरियाणा की पूर्व उप-महाधिवक्ता फिजा उर्फ अनुराधा बाली की उनके चंडीगढ़ स्थित घर से लाश मिलने से सनसनी फैल गई है।
शायद ही किसी ने सोचा होगा कि हरियाणा के पूर्व डिप्टी सीएम चंद्रमोहन के प्यार में पागल अनुराधा बाली उनसे शादी करने के लिए धर्म परिवर्तन भी कर लेगी। लेकिन उन्होंने ऐसा किया और फिजा बन गई। इधर चंद्रमोहन ने भी इस्लाम स्वीकार कर अपना नाम चांद मोहम्मद कर लिया। दोनों का निकाह हुआ। लेकिन विवाह के बाद इनके बीच सब कुछ ठीक-ठाक नहीं रहा। 7 दिसंबर 2009 को दोनों ने सार्वजनिक रूप से माना था कि उन्होंने धर्मपरिवर्तन करके इस्लामिक कायदे से निकाह कर लिया है। निकाह के 20 दिनों बाद ही चांद ने फिजा को छोड़ दिया और अपनी पहली पत्नी के पास लौट गए। चंद्रमोहन पहले से ही शादीशुदा थे। उनके दो बच्चे भी हैं। अनुराधा वकील थी और मोहाली के एक बिजनेसमैन से उनका तलाक हो चुका था।
फिजा ने चांद के खिलाफ पुलिस शिकायत भी दर्ज करवाई। लेकिन हरियाणा पुलिस द्वारा चांद को क्लीन चिट दे दी गई। इस बीच एक इंटरव्यू में फिजा का कहना था कि चांद उनका इस्तेमाल केवल सेक्स के लिए करते थे। फिजा ने कहा था, "अगर चांद मुझसे सच्चा प्यार करते तो 20 दिनों में मुझे नहीं छोड़ देते। जब उन्हें लगा कि वो मुझसे आसानी से शारीरिक संबंध नहीं बना पा रहे हैं तो उन्होंने मुझसे शादी करने को कहा।"
चंद्रमोहन द्वारा ऐसा किए जाने से भजनलाल जहां काफी नाराज थे, वहीं उनके रिश्तेदार भी पूरी कोशिश कर रहे थे कि चंद्रमोहन फिजा को छोड़ वापस घर लौट आएं। आखिरकार उनकी कोशिशें कामयाब हुईं और चंद्रमोहन उर्फ चांद मोहम्मद अचानक फिजा को बिना कुछ बताए लंदन चले गए, जहां उनके बच्चे पढ़ाई कर रहे थे। बाद में मीडिया से बातचीत में उन्होंने बताया कि वे अल्कोहलिज्म का इलाज कराने लंदन गए थे। वापस आने के बाद वे पूरे धार्मिक रीति-रिवाज के साथ विश्नोई समाज में फिर दाखिल हुए और अपनी पत्नी के साथ रहने लगे। लेकिन दबाव बनाए जाने के बाद कुछ ही दिनों में वे फिजा के साथ उसके घर पर रहने चले गए। इस दौरान इनकी अश्लील हरकतें मीडिया की सुर्खियों में छाई रहीं। घर और बाहर, खुलेआम आपत्तिजनक स्थितियों में सामने आने के कारण इन्हें मुहल्ले के लोगों का विरोध भी झेलना पड़ा। लेकिन दोनों के साथ रहने का यह सिलसिला लंबे समय तक नहीं चल पाया और चंद्रमोहन फिर फिजा को उसके सूरत-ए-हाल पर छोड़ अपने घर लौट आए। इसके बाद इन दोनों के बारे में शायद ही कोई खबर आई हो। इस बीच चन्द्रमोहन भले ही आरामतलब जिंदगी जी रहे हैं, लेकिन उनके झूठे प्रेम जाल में फंसी अनुराधा बाली के जीवन का दुखद अंत हो गया।
सियासत में ऐसे कई औऱ भी उदाहरण हैं जिनसे खद्दर दागदार हुई है। राजस्थान सरकार के पूर्व मंत्री व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता महिपाल मदेरणा का नर्स भंवरी देवी के साथ अवैध संबंधों की बात सामने आने के बाद भवरी की हत्या ने राजनीति, अतिमहत्त्वाकांक्षा और लालच की एक औऱ दास्तान लिख दी। बात चाहे भोपाल के शेहला मसूद हत्याकांड की हो या उत्तर प्रदेश के मधुमिता हत्याकांड की सभी के तार राजनीतिक गलियारों से होकर गुजरे हैं। पिछले साल भोपाल में आरटीआई एक्टिविस्ट शेहला मसूद की हत्या कर दी गई। इस मामले में सीबीआई ने शेहला के दोस्त जाहिदा परवेज को गिरफ्तार कर लिया।
जाहिदा पर आरोप है कि उसे अपने पति और शेहला के बीच अवैध संबंधों को लेकर शक था। इसी आधार पर उसने सुपारी देकर अपनी दोस्त की हत्या करवा दी। लेकिन इस हत्याकांड में राजनीतिक मोड़ उस समय आया जब केश की जांच कर रही सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में कहा कि हत्या में शामिल होने की आरोपी जाहिदा परवेज के भाजपा नेता ध्रुव नारायण से जिस्मानी रिश्ते थे। 'फर्स्ट पोस्ट' वेबसाइट ने चार्जशीट के आधार पर बताया कि जाहिदा ध्रुव नारायण के प्यार में इतनी पागल थी कि उसने अपने दफ्तर में विधायक के साथ सेक्स करते हुए वीडियो भी बना लिए था। यह वीडियो सीबीआई के कब्जे में हैं। यह मर्डर केस पूरी तरह से सेक्स और पॉलिटिक्स के बीच उलझा हुआ है।
ऐसा ही मामला उत्तर प्रदेश में भी देखा गया। फैजाबाद की रहने वाली शशि लॉ की स्टूडेंट थी। शशि आनंद सेन के करीबी हो गई थी। वह राजनीति में आना चाहती थी। इसलिए शार्टकट के रूप में उसने आनंद सेन को चुना। शशि के पिता खुद एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। आनंद सेन ने भी उसकी आंखों में बसे इस ख्बाव को देख लिया था। फिर शुरू हुआ वायदों का सिलसिला। वायदे बढ़ते गए, जिस्मानी दूरियां मिटती गईं। 22 अक्टूबर 2007 को शशि गायब हुई। लंबी छानबीन और धड़पकड़ के बाद पता चला कि वह इस दुनिया से जा चुकी थी। उसकी हत्या हो गई थी। एक दशक पहले मधुमिता भी सियासत की भेंट चढ़ गयी। मधुमिता एक कवयित्री थी। उस समय यूपी के मंत्री अमरमणि से उनका प्यार परवान चढ़ गया। दोनों गुपचुप मिलने लगे। यह बात मंत्री की पत्नी को रास नहीं आई। उसने मधुमिता की हत्या 2003 में करा दी। फिलहाल अमरमणि जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं।
अवनीश सिंह
हिन्दुस्थान समाचार
नई दिल्ली -

मीडिया में भाषा की चुनौती


अवनीश सिंह
हिन्दी पत्रकारिता के स्वतंत्रेत्तर युग को देखा जाए तो इसने छ: दशक से अधिक की अपनी यात्रा पूरी कर ली है। इस दौरान पत्रकारिता में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले लेकिन पिछले दस वर्षों में हिन्दी के समाचार पत्र पहले जैसे नहीं रहे। पत्र औऱ पाठक दोनों ने ग्लोवलाइजेशन का मजा चखा। प्रसारण माध्यमों में हुई तब्दीली साफ दिखी। पिछले दशक में जन्में टेलीवीजन चैनलों की गिनती उगली पर करना असंभव है। माना जा रहा है कि नये समाचार माध्यमों के बढ़ने से मीडिया में भाषा को लेकर नयी-नयी चुनौतियां सामने आ रही हैं। ऐसे में हिन्दी भाषा के अस्तित्व पर म़डरा रहे संकट से किस प्रकार उबरा जाए यह एक विचारणीय प्रश्न बनता जा रहा है। समाचार माध्यमों की भाषा किस तरह की हो यह लंबे समय से बहस का मुद्दा बना हुआ है। हिन्दी को लेकर सोचने वाले तरह-तरह के सवाल उठाते हैं, जैसे कि क्या ये हिन्दी के लिए संकट की सूचना है, क्या हिन्दी संक्रमण के काल से गुजर रही है, क्या हिन्दी इन परिवर्तनों और प्रयोगों के बीच जीवित रह पाएगी?
पत्रकारिता का साहित्यिक स्वरूप
साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक अटूट रिश्ता रहा है। एक जमाना वह था जब इन दोनों को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था। ज्यादातर पत्रकार साहित्यकार थे और ज्यादातर साहित्यकार पत्रकार। पत्रकारिता में प्रवेश की पहली शर्त ही यह हुआ करती थी कि उसकी देहरी में कदम रखने वाले व्यक्ति का रुझान साहित्य की ओर हो, लेकिन पिछले दो दशकों से इस रिश्ते में एक दरार आ गई है जो लगातार चौड़ी हो रही है। इसलिए आज की पत्रकारिता पर यह आरोप लग रहा है कि वह साहित्य की उपेक्षा कर रही है।
आजादी से पहले हिंदी पत्रकारिता के तीन चेहरे थे। पहला चेहरा था-आजादी की लड़ाई को समर्पित पत्रकारिता, दूसरा चेहरा था साहित्यिक उत्थान को समर्पित पत्रकारिता का और तीसरा चेहरा समाज सुधार करने वाली पत्रकारिता का था। कहना न होगा कि इन तीनों को आजादी का महाभाव जोड़ता था। इसलिए साहित्यिक पत्रकारिता भी यदि राजनीतिक विचारों से ओत-प्रोत थी तो राजनीतिक पत्रकारिता में भी साहित्य की अंत: सलिला बहा करती थी।
पत्रकारिता में नये प्रयोग
समाचार माध्यमों में हिन्दी के साथ जिस तरह से आये दिन नये-नये प्रयोग किए जा रहे हैं उससे तो यही लगता है कि अब हमारी हिन्दी दूसरी भाषाओं की गोंद में जा बैठी है। सड़क से लेकर संसद तक के लोगों को ध्यान में रखकर काम कर रही मीडिया इन चुनौतियों से कैसे निपटे यह एक विचारणीय प्रश्न है। हिन्दी प्रसारण की भाषा संस्कृत के नजदीक हो या उर्दू के या फिर उसका रोमांस अंग्रेजी के साथ हो। वहीं दूसरी तरफ मीडिया की चिंता यह भी है कि श्रोताओं और दर्शकों की मन:स्थिति को जाने-समझे बिना किस तरह प्रसारण या प्रकाशन करे। इन सबके बीच यह भी विषय सामने आता है कि क्या हिन्दी इतनी सक्षम है कि भारतीय समाज इसे फलते-फूलते देखना चाहता है, अगर चाहता भी है तो क्या शहरों की अंग्रेजी परस्त शासन व्यवस्था इसे पनपने देगी।
औद्योगिक दौर में पत्रकारिता
पत्रकारिता पर यह भी आरोप है कि उसका स्वरूप पहले की तरह स्पष्ट नहीं रह गया है। उसके मकसद को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं। उसमें अनेक स्तरों पर बिखराव दिख रहा है तो कई स्तरों पर अराजकता भी लक्षित हो रही है। सवाल उत्पन्न होता है कि ये आरोप कहां तक सही हैं और यदि पत्रकारिता के पास उनका कोई जवाब है तो वह क्या है? इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि हाल के वर्षों में मीडिया का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रीय एजेंडा निर्धारित करने में आज मीडिया की भूमिका कहीं बढ़ गई है। आज वह केवल एक मिशन नहीं रह गया है, वह एक बड़े प्रोफेशन, बल्कि उद्योग में तब्दील हो चुका है। मीडिया रपटों की माने तो वर्तमान में 10.3 अरब डॉलर का यह उद्योग 2015 में वह 25 अरब डालर यानी सवा लाख करोड़ से अधिक का हो जाएगा। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 600 से अधिक टीवी चैनल, 10 करोड़ पे-चैनल देखने वाले परिवार, 70,000 अखबार हैं। यहां हर साल ।,000 से अधिक फिल्में बनती हैं। जाहिर है, इतने बड़े क्षेत्र को संभालना इतना आसान नहीं रह गया है। दुर्भाग्य यह है कि इसके लिए कोई सुविचारित नीति भी नहीं है।
अवनीश सिंह