अवनीश सिंह
हिन्दुस्तान की आजादी को 65 साल से अधिक हो गया। अब हो गया तो हो गया, इसमें हम कर भी क्या सकते हैं। हम क्या कोई भी कुछ नहीं कर सकता है। आज 65 साल का हुआ है कल सौ का हो जाएगा। फिर भी देश तो वही रहेगा। हमारे राजनीतिक दलों के नेताओं की तरह देश भी अपनी जगह यथावत और स्थिर है। आज भी उत्तर में हमारी रखवाली पर्वत राज हिमालय कर रहा है, दक्षिण में सागर चरण धो ही रहा है। जब इतने सालों में न तो हिमालय की ऊंचाई में कोई कमीं आयी और न ही सागर की गहराई में, तो देश में परिवर्तन कैसे आ सकता है।
लेकिन फिर भी कुछ लोग मानने को तैयार ही नहीं है। वो अपनी ढपली पर सिर्फ एक ही राग अलाप रहे हैं कि इन वर्षों में देश ने बहुत तरक्की की है। राजधानी दिल्ली में भी यह अफवाह रही कि देश प्रगति कर रहा है और इस अफवाह का किसी ने खंडन नहीं किया। शायद यह खबर पक्की हो कि देश ने प्रगति की है। अब कहां से की है इसका पता लगाया जा रहा है। आजादी के इन वर्षों में अगर थोड़ा बहुत परिवर्तन हुआ है तो यह कि आदमी सस्ता और सामान मंहगे हुए हैं, शरीर सस्ता और कपड़े मंहगे हुए हैं। घरों की इज्जत होटलों की शरण में पहुंच गयी है। जिन मुद्दों पर घर के बंद कमरों में चर्चा होती थी वह अब टेलीवीजन चैनल के स्टूडियों में हो रही है। शिक्षितों की संख्या में बढ़ोतरी हुई तो बेरोजगारों की फौज भी खड़ी हो गयी। जहां लड़के हैं वहा पढ़ाने वाला नहीं है। जहां पढ़ाने वाले हैं वहां लड़के नहीं है और जहां दोनो हैं वहां पढ़ाई नहीं है। देश में योजनाएं लागू हुई तो आम आदमियों तक पहुंचने से पहले भ्रष्टाचार की शरण में चली गई। इस बीच अगर देश में कुछ यथावत है तो वह हैं नेता।
देश की जितनी दुर्गति आजादी के पहले अंग्रेजों ने नहीं की उससे अधिक दुर्गति देश के नेताओं ने कर दी। जैसे ही देश को आजादी मिली नेताओं ने महसूस किया कि खादी का कपड़ा मोटा, भद्दा और खुदरा होता है और बदन बहुत कोमल और नाजुक होता है। इसलिए नेताओं ने यह निर्णय लिया कि खादी को महीन किया जाये, रेशम किया जाए, टेरेलीन किया जाए। अंग्रेजों की जेल में नेताओं पर बहुत अत्याचार हुए थे। उन्हें पत्थर और सीमेंट की बेंचों पर सोने को मिला था, सो आजादी के बाद कपास का उत्पादन बढ़ाया गया, उसके गद्दे तकिये भरे गये और नेता उस पर विराज कर (टिक कर) देश की समस्याओं पर चिंतन करने लगे। देश में समस्याएं बहुत थी, नेता भी बहुत थे। समस्याएं बढ़ रही थी, नेता भी बढ़ रही थी। एक दिन ऐसा आया कि समस्याएं नेता हो गयी और नेता समस्या हो गये। फिर दोनो ही बढ़ने लगे।
आजादी से लेकर अब-तक यह समझने की कोशिश की जा रही है कि नेता के मायने क्या होते हैं? खुद नेता भी यही समझने की कोशिश कर रहें हैं कि नेता किसे कहते हैं? लेकिन देश की जनता ने नेता को ब्रह्मा की तरह नेति-नेति के तरीके से समझा। कहा गया कि इस चर-अचर जगत में मनुष्य जितने रूपों में मिलता है नेता उससे जादा रूपों में मिलते है। कुछ बातें ऐसी हैं जो सार्वभौमिक सत्य की तरह अकाट्य है। जैसे नेता अमर है। वह मर नहीं सकता। उसके दोष बनें रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आयेंगे। जब-तक पक्षपात, परिवारवाद, निर्णयहीनता, ढीलापन, दोमुहापन, दिखावा, सस्ती आकांक्षा, लालच और भ्रष्टाचार कायम है तब-तक इस देश से नेताओं को कोई समाप्त नहीं कर सकता। नेता कायम रहेंगे, गरज यह कि कहीं भी किसी भी रूप में आपको नेता ही नजर आयेंगे। तथापि साठ साल हों या छह सौ साल नेता इस देश का और हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाले हैं।
शरद जोशी ने तीन दशक पहले अपने एक लेख में कांग्रेस का जो गुणगान किया था वो आज भी इस राजनीतिक दल और उनके नेताओं पर फलीभूत हो रही है। “कांग्रेस हमारे देश पर तंबू की तरह तनी हुई है, गुब्बारे की तरह फैली हुई है, हवा की तरह सनसनाती रही है और बर्फ की तरह जमी है। इन सालों में कांग्रेस ने देश में कई कीर्तिमान बनाए, उसे सरकारी कर्मचारियों ने लिखा औऱ विधानसभा के सदस्यों ने पढ़ा। पोस्टरों, किताबों, सिनेमा की स्लाइडों, गरज यह देश के हर जर्रे-जर्रे पर कांग्रेस का नाम लिखा गया। रेडियों, टीवी, डाक्यूमेंटरी, सरकारी बैठकों और सम्मेलनों के साथ-साथ दसों दिशाओं में सिर्फ एक ही गूंज है वह है कांग्रेस…”
कांग्रेस की अनुगूंज आज भी देश के आम नागरिकों के मस्तिष्क में समय-समय पर गूंजती रहती है, कभी यह मंहगाई के रूप में तो कभी भ्रष्टाचार के रूप में। स्थिति यह है कि आज भ्रष्टाचार प्रजातंत्र की जड़ सींच रहा है। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन से जहां पूरे विश्व में भारत ने नाम कमाया वहीं इसमें हुए भ्रष्टाचार से उससे भी ज्यादा नाम नेताओं ने कमाया। इस बीच टूजी से संचार के क्षेत्र में जितनी क्रांति नहीं आयी होगी उससे अधिक क्रांति इसमें हुए घोटालों से राजनीति में आयी।
इतिहास साक्षी है कि कांग्रेस ने हमेसा संतुलन की नीति को बनाए रखा। जो कहा वह किया नहीं, जो किया वह बताया नहीं, जो बताया वह था ही नहीं और जो था वह गलत था। अहिंसा की नीति पर विश्वास किया और उस नीति को संतुलित किया लाठी और गोली से। सत्य की नीति पर चली, लेकिन सच बोलने वालों से सदा नाराज रही। पेड़ लगाने का आंदोलन चलाया औऱ ठेके पर जंगलों को साफ कराया। शराब के ठेके दिये, दारू के कारखाने खुलवाए; पर नशाबंदी का समर्थन करती रही। हिन्दी की हिमायती रही पर अंग्रेजी को चालू रखा। योजना बनायी तो लागू नहीं होने दिया। लागू की तो रोक लगा दीया और जब रोक दिया तो कभी चालू नहीं की। समस्याएं उठी तो कमीशन बैठाया, रिपोर्ट आयी तो कभी पढ़ा ही नहीं गया।
इस दौरान कांग्रेस ने संतुलन की कई नई परिभाषाओं को जन्म दिया। ऐसे में कहा जा सकता है कि कांग्रेस का इतिहास निरंतर संतुलन का इतिहास रहा है। समाजवाद की समर्थक रही, पर पूंजीवाद को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। नारा दिया तो पूरा नहीं किया। प्राइवेट सेक्टर के खिलाफ पब्लिक सेक्टर को खड़ा किया और पब्लिक सेक्टर के खिलाफ प्राइवेट सेक्टर को। जब कुछ समस्या आयी तो दोनों के बीच खुद खड़ी हो गयी। एक को बढ़ने नहीं दिया और दूसरे को घटने नहीं दिया।
आत्म निर्भरता पर जोर देते रहे और विदेशों से समर्थन मांगते रहे। “यूथ” को बढ़ावा दिया, बुड्ढों को टिकट दिया। जो जीता वह मुख्यमंत्री बना, जो हारा सो गवर्नर हो गया। जो केन्द्र में बेकार थे उसे राज्य में भेज दिया, जो राज्य में बेकार थे उसे केन्द्र में ले आये। जो दोनो जगह बेकार था उसे अंबेसेडर बना दिया। वह देश का प्रतिनिधित्व करने लगा। कांग्रेस ने कभी किसी को निराश नहीं किया। संतुलन की इंतिहा यह हुई कि उत्तर में जोर था दक्षिण में कमजोर थे। दक्षिण में जीते तो उत्तर में हार गये। जोर बना रहा कमजोर पड़ते गये। सच्चे अर्थों में कहा जाए तो कांग्रेस कार्य के अनुरूप व्यक्ति नहीं बल्कि व्यक्ति के अनुरूप कार्यों की हिमायती रही।